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How did Osho come into my life? (हिंदी अनुवाद - मेरी, जिंदगी में कैसे आए, अेाशो)

  • ayubkhantonk
  • May 29
  • 6 min read

Updated: May 31

दिनांक : 29.05.2025

 अध्याय- एक

इतिहास का अध्ययन दो काल खण्डो में विभाजित करके किया जाता हैं। ईसा से पूर्व अैार ईसा के पश्चात। मुझे भी स्वयं के जीवन का अध्ययन करने के लिए, जीवन को दो काल खण्डो में विभाजित करना होगा। पहला खण्ड अेाशो से पहले अैार दूसरा खण्ड अेाशो के पश्चात। पहले काल खण्ड में मात्र सोलह वर्षो का समय ही आता है। बालपन अैार किशेारावस्था में हजारो प्रश्नो की उत्पत्ति बहुत सताती थी। इन प्रश्नो के उत्तर किस स्त्रोत से मिलेगें। यह भी ज्ञात नहीं था। इस आयु में अंधे की तरह टटोलने की प्रज्ञा भी नहीं थी। अनुत्तरित प्रश्नो की संख्यां में वृद्वि का क्रम जारी था। एक प्रश्न के बारे में विचार करता तो दस नए प्रश्नो की श्रृखला ओर उभर आती। उस श्रृखला पर विचार करने लगता तो वह श्रृखला ही आडी तिरछी हो जाती। मेरी उर्जा उस श्रृखला को सीधी करने का प्रयास करती तो श्रृखला उपर नीचे होने लग जाती।


समझ में नहीं आ रहा था कि रोजाना जीवन के प्रश्नो की बोछारें मुझे ही क्यो भीगो कर चली जाती हैं। एसा लगता था कि अनुतरित प्रश्न एक जन्म की सम्पदा तो नहीं हैं। प्रश्नो की संख्यां को देखते हुए पूर्व जन्म के नियम पर यकीन होने लग जाता। प्रश्न अैार निर्मित होने वाले व्यक्तिव में संघर्ष पैदा होने से द्वैत की स्थिति उत्पन्न हो गई। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जीवन में द्वैत ही दुख अैार संताप की जननी हैं।


इस द्वैत के जगत में हाथ पाॅव मारने से जीवन आहत होए जा रहा था। एक आहत जीवन को तिनके का ही सहारा मिल जाए तो नैया पार होने की उम्मीद बॅध सकती हैं। उम्मीद की किरण ही दिखाई पडने लग जाए तो समझना चाहिए कि प्रकाश पॅूज अरीब-करीब ही होगा। प्रकाशित होने की अकांक्षा प्रबल होने लगे तो अस्तित्व भी सहयोग करने हेतु आतुर हो जाता हैं। लोगो को देखता था तो लगता था कि यह संपूर्ण पृथ्वी ही दुखो का घर है। यहॅा कोई शख्स सुखी नहीं हैं। मै स्वंय तो दुख अैार संताप की पीडा को झेल रहा था, साथ ही साथ परिजनो की अेार नजर दौडाता तो लगता था कि यह भी संतापग्रस्त हैं। मस्तिष्क में एक ही सवाल बार-बार कौंधता था कि इस दुख सागर को पार करने में कैान साहिल बन सकता है। मै समझ चुका था कि बिना साहिल के दुख सागर को पार करना असंभव हैं।


मस्तिष्क में शुभ अैार अशुभ विचारो की नदिया न तो एकाग्रचित होने दे रही थी अैार न ही संताप के उत्पत्ति केंद्र तक पहुॅचने दे रही थी। किसी से दुख व संताप की सरिता से बाहर निकलने का मार्ग जानने की कोशिश करता तो मुझे महसूस होता कि वह व्यक्ति भी मेरी तरह संतापग्रस्त हैं। रोगी, रोगी का इलाज नहीं कर सकता हैं। दुख अैार संताप की सरिता को ऐसा साहिल ही पार करवा सकता जो स्वंय इन रोगो से मुक्त हो चुका हो। जिसके भीतर की ज्योति जल चुकी हो। जो बुद्द पुरुष हों।

भीतर से आवाज तो आती थी कि एसे व्यक्ति का सत्संग तो मिलेगा।

अस्तित्व मदद तो करेगा। लेकिन कब अैार कैसे? इनका कोई उत्तर नही था।


कॅालेज जाने के बाद तो बार-बार यह प्रश्न उठने लगा कि मै कैान हॅू? मेरा असली स्वरुप क्या हैं? मन में सभी के प्रति सदभावनायुक्त हूॅ फिर भी मन में बैचेनी क्यो प्रविष्ट हो रही है? इस बैचेनी, संताप अैार दुख का मूल स्त्राेत क्या हैं? ऐसे सवाल बार-बार जन्म लेते, लेकिन जवाब न मिलने के कारण अवचेतन में जाकर सुंगृहित हो जाते। इस तरह अवचेतन मन में अनुतरित प्रश्नो का जखीरा इक्टठा होने लगा।


मेरे कॅालेज के सहपाठी सुरेश वर्मा से इन अनुतरित प्रश्नो के बारे में चर्चा की तो उसने सीधा जवाब नही दिया। उसने कहा-

‘’ शाम को मेरे घर आ जाअेा। चर्चा करेगें।'’ इस रुखे जवाब से संतुष्टि तो नहीं हुइ लेकिन चांस लेने में कोइ हर्जा भी नहीं था। 

मै शाम को ठीक छः बजे सुरेश वर्मा के घर पहुॅचा।

गलियो में बना हुआ, छोटा सा घर।

वह बिना कुछ बोले, मुझे अपने स्टडी रुम में ले गया। एक कैसेट ली अेार टेपरिकार्डर में डाल कर टेपरिकार्डर को चालू कर दिया । मैने देखा कि कैसिट पर छपा हुआ था- ''अनहद में विसराम'' । कैसिट पर एक संत, जैसे व्यक्ति की तस्वीर छपी हुइ थी। उनकी ऑखो में मनमोहक चमक थी l  


वह कैसिट नब्बे मिनिट की थी। हम दोनो उस कैसिट को सुनते-सुनते सम्मोहित होते जा रहे थे। उनकी आवाज मे जादू था। ऐसे लगा कि यह आवाज किसी अेार ही लोक से आ रही हैं। शब्दो का ऐसा चयन जिसमें अप्रसांगिक एक भी शब्द नहीं था। जब कैसिट खत्म हुई अैार खट की आवाज के साथ टेपरिकार्डर बंद हुआ। तब सम्मोहन से बाहर निकले। आंखो को धोया तब हमारी चेतना लौटी।


इस तरह तत्कालीन भगवानश्री रजनीश ने अमृत वाणी से मेरे जीवन में प्रवेश किया। मस्तिष्क शांत हो गया। बैचेनी का ग्राफ एक बार तो नीचे आया। इसके बाद धीर-धीरे मेरे सवालो के जवाब अेाशो के प्रवचनो में मिलते रहे। जिस दिन ओशो की मधुर ध्‍वन‍ि कानो में मधु रस नहीं घोलती तब ऐसा लगता क‍ि आज का दिन व्‍यर्थ गया l


मेरे विचार में अेाशो रजनीश आज तक हुए रहस्यदर्शियो में सर्वथा अनूठे हैं। उन्होने मुख्य रुप से तनावग्रस्त मानवता को मैान अैार ध्यान का स्वाद चखाकर, यह अहसास कराया कि मानव ही स्वंय अपने तनाव की उत्पत्ति का मुख्‍य कारण हैं। वैसेंं अेाशो जैसी महान चेतना के समकालीन रहना ही मेरे लिए सौभाग्‍य का विषय हैं। मेरा यह मानना हैं कि जीवन के प्रत्येक रहस्य को अेाशो नें अपने अमृत प्रवचनों के माध्यम से खोल कर रख दिया हैं। इतिहास के संत पुरुषो अैार सूफियो के गूढ सूत्रो की उन्होने वर्तमान परिपेक्ष्य में विस्तृत व्याख्या की है। इसलिए उनकी सभी व्याख्याए नूतन अैार प्रसांगिक लगती हैं। शायद ही एसे संत सा मनीषी हो जो अेाशो के अमृत प्रवचनो के दायरे से बाहर रह गए हो। वे सभी संतो, मनिषियों और सूफियों पर खूब बोले हैं l खुल कर बोले हैं , पूरी सत्‍य निष्‍ठा के साथ l


चीन के बुद्द पुरुष लाअेात्से का कार्यकाल कई शताब्दियो पहले था। भारत में कोई भी लाअेात्से को जानता तक नही था। अेाशो ने लाअेात्से के गूढ विरोधाभाषी सूत्रो की व्याख्या कर, लाअेात्से को भारत में लोकप्रिय कर दिया। आज लाअेात्से पर दिए गए प्रवचनो का संकलन दस पुस्तको के रुप में हमारे सामने है। विश्व को श्रृणी होना चाहिए कि इन विरोधाभाषी लेकिन रहस्यो से अेात प्रोत गूढ सूत्रो से अेाशो ने पर्दा सरकाया। हमारे पढने के लिए लाअेात्से को उपलब्ध कराया।


मै यह स्पष्ट करना चाहॅूगा कि ओशो किसी परंपरा या संप्रदाय की कडी नही हैं। अेाशो तो मानवता को गर्त में जाने से बचाने वाले ऐसे बुद्द पुरुष हैं जिंन्होने बिना किसी लाग लपेट के सत्य को जैसा अनुभव किया वैसा ही अभिव्यक्त कर दिया। आप चाहे राजी हो या नही l उन्‍हे कोई लेना देना नहीं हैंl उन्‍हे तो हरसूरत में सत्‍य को अभव्यिक्‍त करना हैंl किसी को मीठा लगे तो ठीक किसी को कडवा लगे तो भी उनकी सेहत पर कोई फर्क नही पडता हैं l राज इससे प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में यह सवाल जरुर कोंधता हैं कि मै कौन हॅू? मेरा वास्तविक स्वभाव क्या हैं? मानव के इस यक्ष प्रश्न का जवाब सिर्फ अैार सिर्फ अेाशो ने ही दिया हैं। इसलिए अेाशो की गिनती किसी संप्रदाय या परंपरा में नहीं की जा सकती। वे एक रहस्यवादी, अन्तर जगत के वैज्ञानिक अैार निडर विद्रेाही चेतना हैं। उनके अल्प जीवनकाल में उनकी अभिरुचि इस बात में रही कि मानवता को तत्काल नई जीवन शैली दी जाए ताकि वह अपने वास्तविक स्वरुप को पहचान कर सुखी जीवन को उपलब्‍ध हो सके। वे सदैव ऐसे ध्यान प्रयोग खोज कर लाते रहे ताकि हमारे जीवन में आनंद के फूल खिल सके।


मित्र, सुरेश वर्मा के साथ अेाशो की अमृत वाणी सुनने का सौभाग्य वर्ष 1983 में प्राप्त हुआ। मेरा काॅलेज में पहला ही साल था। उस समय अेाशो को भगवान रजनीश के नाम से जाना जाता था। वे अपने दस हजार सन्यासियों के साथ अमेरिका के रजनीशपुरम में निवास कर रहे थे। सुरेश वर्मा के साथ टेपरिकार्डर पर केसिट से प्रवचन सुना था। सुरेश वर्मा, वह कैसिट स्वामी योग कुंदन से पचास पैसे रोज के हिसाब से किराये पर लाया था। उसके बाद तो हम ओशो प्रवचन की ओडियो कैसि‍ट पचास पैसे रोज के हसिाब से किराये पर लाते अैार उसे दो बार सुनकर, स्वामी योग कुंदन की कैसिट लाइब्रेली में जमा करवा आते। ओशो के प्रति हमारी दीवानगी दिन प्रतिदिन परवान चढने लगी l यह दीवानगी लोगो की ऑख की किर‍किरी बनने लगी थी l


चार दशक बाद आज भी मुझे याद है l ''अनहद में विसराम'' मे अेाशो कह रहे थे-

‘’ और, जिसने उस शून्य को पा लिया, उसने विश्राम को पा लिया ।


जारी है ...........



 
 
 

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आपका स्वागत करना मेरे लिए प्रसन्नता की बात है।

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