What Are Emotions Called? (Part - 10) (हिंदी अनुवाद- भावनाऍ किसे कहते है? भाग - 10)
- ayubkhantonk
- Oct 5
- 3 min read
Updated: Oct 6
दिनांक : 05.10.2025

मैने हिम्मत जुटाकर कहा---
‘‘सर, आपने उन्हे पढा नही। आपने उन्हे सुना नहीं। मेरे ख्याल से बिना पढे, बिना सुने, किसी व्यक्ति के लिए ऐसी धारणा बनाना, आप जैसे शिक्षाविद के लिए उचित नहीं हैं। ‘‘ मेरी इन तीन पंक्तियों ने आग में घी डालने का काम किया। वे बुरी तरह भडक गये। आपे से बाहर हो गए। जैसे मैने उन्हे कोई गाली दे दी गइ हो।
‘‘ तुम मुझे सिखाओगे कि शिक्षाविद को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। जितनी तुम्हारी उम्र नहीं हुई उससे ज्यादा तो मेरी सर्विस हो गई। उसके पास सम्मोहन के अलावा कुछ नहीं है। मैने तो यहॉ तक सुना हैं कि उसके प्रवचनो की कैसिट में भी सम्मोहन के वायरस हैं। जो एक बार उसकी कैसिट को सुन लेता है, उसी का मुरीद होकर रह जाता हैं। मुझे, मेरे धर्म से भटका देगा। बहुत खतरनाक आदमी मालूम होता हैं।‘‘
‘‘सर, आप कोई पुस्तक पढ लेते तो आपको हकीकत का पता चल जाता। जिन लोगो ने आचार्यजी के बारे में दुष्प्रचार किया है, उन लोगो ने भी बिना उनकी कोई पुस्तक पढे, गलत धारणाए बना ली हैं। मेरा विनम्र अनुरोध है कि आप उनकी कोई एक पुस्तक पढ लें। फिर आपको कुछ गलत लगे तो दूसरी मत पढना। पुस्तक मैं उपलब्ध करवा दूॅगा। आप कहे तो मै प्रवचनो की कैसिट भी------।‘‘
मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ। उससे पहले ही वे फुर्ती से कुर्सी से उठे और बडबडाते हुए घर के भीतर चले गए। मेरा मित्र शर्मिदा हो गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने उस पर घडो पानी उलीच दिया हों। वह ताउजी की चेतावनी से भयभीत हो गया था। मैने उसे कुछ कहना उचित नहीं समझा।
मैं भी एक शिक्षाविद का मानसिक स्तर देखकर घर लौट आया।
उस दिन के बाद वे सज्जन मुझसे दूर रहने लगे। रास्ते में कहीं नजर आ जाते और मैं अभिवादन भी करता तो वे जवाब देने के बजाय तेजी से निकल जाते। मित्र ने भी दूरिया बना ली। उसने अपने ताउजी के वकतव्यो से अन्य सहपाठियो को अवगत कराया तो वे भी अपने परिजनो के प्रकोप से मेरे नजदीक नहीं आ रहे थे। हॉलाकि वे मुझसे प्रेम रखते थे फिर भी परिजनो के प्रकोप के शिकार होने का भय उनके जहन मे बैठ गया था।
1984-85 में ओशो को लेकर ऐसा दुष्प्रचार चल रहा था।
कोई पुस्तक पढने को तैयार नहीं था।
एक ने दूसरे को कहा, दूसरे ने तीसरे को और यह श्रृखला आगे बढती जा रही थी। मुझे अच्छे खासे पढे लिखे लोगो की जड बुद्दि पर तरस आता था कि बिना पढे कैसे किसी व्यक्ति के खिलाफ धारणा बनाई जा सकती हैं। ओशो को बदनाम करने में समाचार पत्र भी पीछे नहीं रहें। उनमें भी ऐसे आलेख प्रकाशित होते रहे जिससे दुष्प्रचार को हवा मिलती रही। कई आलेख तो ऐसे लेखको के होते थे जिन्होने न तो कभी अेाशो की पुस्तक पढी और न ही कोई प्रवचन सुना। कल्पना कीजिए कि ऐसे विषाक्त माहोल में हम ओशो प्रेमियो को अेाशो की पुस्तक भी कवर चढाकर पढनी पडती थी। हमेशा भयग्रस्त रहते की कोइ पुस्तक पढते देख नहीं ले। इतनी विपरित परिस्थियो के बावजूद भी हम अेाशो के रंग में रंगने लगे थे। यह रंग किसी को रास नहीं आ रहा था।
संयोग कहिए कि मै कॉलेज की परीक्षाओं में अच्छी प्रफोरमेंस देता तो अकारण पनपी विरोधियों की टीम ईर्ष्या के बोझ तले दबने लगी। वे मुझे तारगेट करने से बचने लगे। उनके लिए यह कौतुहल का विषय हो गया था कि मैं पाठयक्रम के बाहर का साहित्य पढता हूॅ फिर भी परिक्षाओं में अच्छे नंबरो से कैसे उतीर्ण हो जाता हूॅ? अब वरिष्ठ नागरिक होने के पश्चात मुझे अहसास हुआ कि ओशो की करुणा से ही यह सब कुछ संभव हो पाया। ओशो के इस सूत्र को आत्मसात किया कि जो भी करो, होशपूर्वक करो। इस सूत्र को आत्मसात करनें से प्रगति की राह आसान होती चली गई। रास्ते स्वयं आगे का मार्ग दिखाने लगे। अस्तित्व सहयोग करने लगा। चित्त, शांत अवस्था की ओर कदम बढा रहा था। न किसी से प्रतियोगिता की होड रही। धीरे-धीरे, मैत्री ने पॉव पसारना शुरु किया तो दुर्भावना का विष तिरोहित होने लगा। प्रत्येक व्यक्ति में उस परम प्यारे की झलक नजर आने लगी। पेड पौधे भी प्रेममय नजर आने लगे। चांद तारो के सौंदर्य का रसपान का स्वपन, मैत्री भाव से स्वतः ही साकार होने लगा। जो प्रभात नीरस लगता था, वही प्रभात अब उत्सव का पर्याय लगने लगा। ओशो की करुणा से जीवन में रुपानंतरण का सूर्योदय होने लगा।
खैर। लोगो के कटाक्ष और जीवन रुपानंतरण की प्रक्रिया समानांतर चलती रही।
हम बात कर रहे थें, भाव-शुद्वि की।
आगे जारी है.........
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