अेाशो हमारे विवेक को जागृत करते है। (भाग : 1, ब्लॉग : 1)
- ayubkhantonk
- Apr 28
- 4 min read
Updated: May 9
दिनांक : 28.04.2025

लोग सोचते है कि ओशाे समाज और धर्म विरोधी थे। लेकिन यह सत्य नही है। ओशो सम्प्रदाओ और तथाकथित धर्मो में उत्पन्न हुए अंधविश्वासो और पांखडो के विरोधी थे। ओशो का उद्वेश्य, समाज मे निहित स्वार्थो की पूर्ति के लिए जो मानसिक विकृतचित्ता पैदा हुई है उसे उजागर करना और उसके समाधान प्रस्तुत करना रहा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ओशो ने धर्मो का पुरजोर विरोध किया है लेकिन धार्मिकता की प्रशंसा की है। बरसो पहले, उनके सार्थी प्रोफेसर के पुत्र ने ओशो से यही प्रश्न पूछा था कि वे धर्मो के खिलाफ क्यो बोलते है, तब उन्होने यही कहा था कि धर्म तो एक वचन है। तुम्हारे समाज ने उसे बहुवचन बना दिया है। उन्होने कहा कि वे सदैव धर्म के पक्ष में है। उनका उद्वेश्य व्यक्ति को धार्मिक बनाना है। जेसे ही व्यक्ति धार्मिक होता है, वैसे ही उसके जीवन से महत्वकाक्षा और अंहकार के बादल स्वतः छंट जाते है। इसके बाद ही व्यक्ति निर्मल और शांत चित्त हो सकता है।
ओशो के कतिकारी प्रवचनो से जिन तथाकथित धार्मिक लोगो की रोजी रोटी प्रभावित हो रही थी वे तर्को के माध्यम से मुकाबला करने मेे समर्थ नही थे इसलिए उन्होने आरोप लगाना प्रारंभ कर दिया कि ओशो उनके देवी देवताओ का अपमान कर रहे है। यह वे लोग थे, जिनके जीवन से उत्साह गघे के सींग की तरह गायब हो गया था। लोगो के चेहरे आभाविहिन होकर मुरझा गये थे। वे सही गलत में भेद करना भूल गए थे। उनका जीवन लकीर के फकीर की तरह हो गया था। जीवन, रचनात्मकता और मौलिकता से शून्य हो गया था। तथाकथित जानकारो ने लोगो के दिमाग में बैठा दिया था कि तुम्हारा, वर्तमान पूर्व जन्मो के कृत्यो का फल है। इस सूत्र को घुटटी की तरह लोगो को पिलाकर उनसे विकास के पूरे अवसर छीन लिए गए। समाज में धारणा फैल गई कि जब वर्तमान जीवन के कष्ट, पूर्व जन्म के कृत्यो का ही फल है तो हम कर भी क्या सकते है। वे जस के तस होकर बैठ गए। जीवन के रुपांतरण के मार्ग पर ऐसा अवरोघ पैदा कर दिया गया कि कोई इन अवरोघको को पार नही कर सके।
लोगो को पूर्व जन्म के संस्कारो के जाल में इस तरह उलझा दिया गया कि वे यह सोचकर संतुष्ट हो जाए कि जब पूर्व जन्म के संस्कारो से ही हमारा वर्तमान निर्मित हुआ है तो हम कुछ नही कर सकते। आज हमारे जीवन में दुख ने पॉव पसार रखे है तो दुखो को अलविदा कहने का हमारे पास कोई चारा नही है। हमें यह दुख तो भोगने ही होगें। जब इस प्रकार की अवघारणा से कोई समाज ग्रस्त हो जाए तो समझ लीजिए कि इस कृत्रिम दुख जाल से कैसे बाहर निकला जा सकता है। इस दुख के कारागृह से बाहर निकलने के उपाय सोचने समझने की शक्ति छीन ली गई। जब आशो ने लोगो को जागृत करना शुरु किया तो ऐसी अवधारणा के प्रतिपादक तिललिाने लगे। उन्होने आशो को बदनाम करने के उपाय खोजने शुरु कर दिए। सबसे पहले तो उन्हे नास्तिक घोषित किया गया। समाचार पत्रो मे उनके बारे में लिखा जाने लगा कि वे घर्म विरोधी है। वे लोगो को शास्त्रो के विरुद्व आचरण करने हेतु दुष्प्रेरित कर रहे है। मुझे याद है, जब मैने ओशो को पढना शुरु किया था, तब मोहल्ले के लोगो ने मेरा अघोषित बहिष्कार सा कर दिया था। जैसे ही मुझे ओशो की पुस्तक पढते देखते तो बुरा सा मुॅह बनाकर हिकारत की दृष्टि से देखते ताकि मैं अपराघ बोघ ग्रसित होकर ओशो को पढना छोड दूॅ। धीरे-घीरे मेरा विवेक जागृत होने लगा। मै प्रत्येक कार्य आरंभ करने से पूर्व उसकी औचित्यता और तार्किता पर विचार करने लगा। ‘‘क्यो और कैसे‘‘ जैसे शब्द, हर वक्त मेरे दिलो दिमाग मे छाए रहते। मै पत्रिकाओं में कोई कहानी भी पढता तो सबसे पहले कहानीकार की मानसिकता का विश्लेषण करने लग जाता। फिर उस कहानी के अंत को लेकर विचार करता कि क्या कहानी का इस तरह अंत करना औचित्यपूर्ण था,? क्या इसमे एक घटना और जोडी जा सकती है? यदि मुझे लगता कि एक और घटना का समावेश करने से कहानी की रोचकता में वृद्वि हो सकती है तो मैं अपनी नोटबुक में कहानी का विस्तार करके एक घटना और जोड देता। चुनिंदा मित्रो को, जोडे गए कथानक को सुनाता तो वे पहला प्रश्न यही पूछते कि मै प्रत्येक चीज में अपनी टॉग क्यो अडाता हूॅ।
वे यह तो मानते थे कि मै कहानियो को मात्र मनोरजन के लिए नही पढता हूॅ बल्कि कहानियो को गंभीरतापूर्वक पढकर अपने विवेक का भी प्रयोग करता हूॅ। कभी-कभी तो मै अध्यापको को भी पाठयपुस्तको की कहानियों में कथानक जोड कर सुनाता तो वे आनंदित होते और कक्षा में नए कथानक का मुझसे वाचन भी करवाते। कई शिक्षको को पसंद नही आता और वे मेरे द्वारा जोडे गए कथानक की खिल्ली भी उडाते थे।
कहानियो के प्रति विवेक को जागृत करने का श्रेय ओशो को ही जाता है। ओशो की किसी पुस्तक में, मैने एक कहानी पढी और कहानियों में जोडने घटाने की प्रवृति विकसित हुई। वैसे तो पूरा जीवन ही ओशो के विचारो से प्रभावित हुआ है। मुर्छा के घने बादलो में से होश की कुछ किरणे दृष्टिगत होने लगी। रचनात्मकता की वीणा से कुछ सुर सुनाई देने लगे। जीवन को अपने ढंग से जीने का बीज अंकुरित होने लगा। सामाजिक परिवेश से जो अपुष्ट श्रृद्वा का पाठ पढा था, वो अब संदेह के घेरे में आने लगा। यह अनुभव में आया कि हमारे आस-पास जो घटित हो रहा है। वह नैसर्गिक नही है। हमने प्रकृति के साथ इतनी छेडछाड करी है कि प्रकृति का मूल स्वरुप ही नष्ट हो गया है। क्या सदियो से स्कूलो के पाठयक्रम मे चल रही कहानियां अधूरी हो सकती है। इसका आभास भी ओशो की वजह से हुआ।
Osho's insights challenge conventional thinking and open up a deeper understanding of life, love, and consciousness. His words always make me pause and reflect.