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अेाशो हमारे विवेक को जागृत करते है। (भाग : 1, ब्लॉग : 2)

  • ayubkhantonk
  • May 1
  • 6 min read

Updated: May 9

दिनांक : 01.05.2025

गत ब्लॅाग की निरंतरता में----

पिछले ब्लाॅग में हम बात कर रहे थे, पाठयपुस्तको में बरसो से पढ़ाई जाने वाली अधूरी कहानियो की। एक कहानी की बानगी देखिए-----



स्मृति के आधार पर पाठयपुस्तक की वह कहानी लिख रहा हूॅ। विचार करे कि पहली बार ओशो की प्रज्ञा से वह कहानी अपने वास्तविक अंत को प्राप्त हुई। मैंने तीन दशक पहले इसे एक प्रवचन में सुना था। ओशो कह रहे थे कि बंदरो के बारे में प्रचलित है कि वे नकलची होते है। यदि मानव उन्हे डराने की कोशिश करता है तो वे अपने दॉत भींचकर आक्रामक मुद्रा बनाकर हिंसक नजर आने लगते हैं। कोई प्रेम से उनकी तरफ केला उछालता है तो वे विकिटकीपर की भांति उसे लपक लेते है। उस समय उनकी मुद्रा धन्यवाद की होती हैं। जब वे प्रेमालाप कर रहे हो तब उन्हे डिस्टर्ब किया जाए तो उनकी मुख मुद्रा अलग प्रकार की हो जाती है।

       

एक टोपिया बेचने वाला था। गॉव-गॉव, ढॉणी-ढाणी, मे फेरी लगाकर अपनी टोपिया बेचा करता था। यह उसका खानदानी व्यवसाय था। उसकी चार पीढियॉ यही कार्य करती रही थी। टोपियॉ सिलने का कार्य महिलाए करती थी और बेचने का कार्य परिवार के पुरुष करते थे। टोपिया बेचने से जो आमदनी होती थी, उससे परिवार की आजीविका चलती थी।

    

एक दिन वह समीप के गॉव में टोपियॉ बेचने गया हुआ था। टोपियों का गट्ठर उसके सिर पर था। गर्मियो के दिन थे। दोपहर हो चली थी। काफी थक गया था। फिर उसे नीम का छायादार वृक्ष नजर आया। वह वृक्ष के नीचे पहुचाॅ तो उसे कुछ शीतलता महसूस हुई। उसने टोपियों का गट्ठर जमीन पर रखा। बोतल से पानी पिया और बोरी बिछााकर लेट गया। गर्मियो में सूरज आग उगल रहा था। बीस किलोमीटर का सफर कर चुका था। थकान के कारण नींद की परिया उस पर जादू डालने लगी। वह नींद के आगोश में चला गया। बहुत गहरी नींद आई। करीब दो घंटे की गहरी नींद लेकर वह जागा तो उसे टोपियों का गट्ठर नजर नही आया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरे साफ नजर आने लगी। उसने दूर दूर तक नजर दौडाई लेकिन टोपियों का गट्ठर कहीं नजर नहीं आया। उसका गला सूख गया। वह बैचेन हो गया। उसने नीम के पेड की शाखाओ पर देखा तो पूरा माजरा समझ में आ गया। पेड पर बंदरो की बारात रुकी हुई थी। लगभग साठ-सत्तर की तादाद में होगें। प्रत्येक वानर के सिर पर टोपी थी। वे टोपी सहित एक शाखा से दूसरी शाखा पर उछल कूद कर रहे थे। उसने बंदरो को इतना खुश कभी नही देखा था। उसने कई बार सडक के किनारे बैठे बंदरो को केले खिलाए थे। केले खाते वक्त भी बंदर इतने खुश नही हुए थे। टोपी उनका खाद्य पदार्थ भी नही थी। फिर भी वे बहुत खुश थे।

    

उसके चेहरे से चिंता की लकीरे मिटने लगी। उन लकीरों का स्थान लिया एक मुस्कान ने। वह मुस्कुराया। उसने अपने पूर्वजो से सुना था कि बंदर नकलची होते है। वे आदमी की नकल करते है। उसके सिर पर भी एक टोपी थी। यह मानते हुए कि जैसा एक्शन, मै करुगॉ वैसा ही एक्शन नीम पर बैठी बंदरो की बारात करेगी, उसने अपने सिर से टोपी उतारी और बंदरो की तरफ उछाल दी। बंदरो ने भी वैसा ही किया। उन्हाने भी अपनी टोपिया, टोपी विक्रेता की तरफ उछाल दी। बंदरो की टोपिया जमीन पर गिर गई। टोपी विक्रेता खुशी से झूम उठा। उसने जमीन पर गिरी, टोपियों को इकटठा किया और उन्हें, अपनी गठरी में बॉध लिया। उसने एक नजर नकलची बंदरो पर डाली। फिर टोपियों से भरी गठरी को सिर पर रखकर अपने घर के लिए रवाना हो गया। बंदर मुॅह ताकते रह गये। उसने अपनी बुद्वि का लोहा मनवाने वाले अंदाज में धीमे से कहा ‘‘बेचारे बंदर‘‘।

      

पाठयपुस्तको में यही पर कहानी का अंत हो जाता है। ओशो कहते है कि यह कहानी अधूरी है। ओशो इस अधूरी कहानी को इस तरह पूरी करते है-

टोपी विक्रेता, देर शाम तक अपने घर पहुॅचा। उसकी उम्र साठ वर्ष पार कर गई थी। उसने सॉझ का भोजन करते हुए अपने बडे पुत्र सहित आज घटित हुई, घटना का वृतांत अपने परिवारजनो को सुनाया और अपनी बुद्वि की खुद ही तारीफ करते हुए खुलासा किया कि किस तरह उसने बंदरो से टोपियो को पुनः हासिल किया। परिवारजन भी उसकी बुद्वि की तारीफो के पुल बॉधने लगे। फिर उसने गंभीर होकर अपने बडे पुत्र से कहा कि मै अब बुढा हो गया हूॅ। मेरे से अब गॉव-गॉव, ढाणी-ढाणी टोपियों का गट्ठर लेकर घूमने की ताकत नही बची है। मै, अब थक कर चूर हो जाता हॅू। अब तुम बडे हो गए हो इस खानदानी काम को चालू रखने का भार तुम्हारे कंघो पर हैं। मेरे कंघे अब थक गए हैं। बडे पुत्र ने हॉ, कर दी। फिर उसने अपने अनुभव बडे पुत्र के साथ साझा किए। उसने कहा कि तुम्हे कई गॉवो में जाकर टोपिया बेचनी है। इसलिए जाहिर हैं कि तुम्हे किसी वृक्ष के नीचे विश्राम भी करना पडे। यह भी संभव हैं कि तुम्हे विश्राम करते-करते नींद भी आ जाए। सोने से पहले टोपियो के गट्ठर को मजबूती से बांध देना। उसने अपने पुत्र को आज, उसके साथ घटित घटनाक्रम सेे अवगत कराते हुए कहा-

''मुझे मालूम था कि बंदर, इंसान की नकल करते है। मैनें अपने सिर से टोपी उतारी और बंदरो की तरफ उछाल दी। इसके जवाब में बंदरो ने भी अपने-अपने सिर से टोपिया उतारकर उछाल दी। मैने सभी टोपियों को गट्ठर में बॉधा और घर चला आया।'’। उसने अपने पुत्र को समझाने वाले अंदाज में कहा -

'’ अगर तुम्हारे साथ भी ऐसी घटना, घटित हो जाए तो घबराना मत। अपने सिर से टोपी उतारकर बंदरो की तरफ उछाल देना। बंदर भी वैसा ही करेगें। ‘‘

  

पुत्र के बात समझ में आ गई। वह बोला-‘‘ ठीक है, पिताजी। मै कल से टोपियॉ बेचने का काम शुरु कर दूॅगा। वैसे तो मै विश्राम करने से पहले गटठर की गॉठ मजबूती से बॉध लूॅगा। फिर भी खुदा न खास्ता ऐसा वाकया हो गया तो मैं वही करुगॉ जो आज आपने किया।‘‘

       

उधर, रात को बंदरो ने भी एक सभा का आयोजन किया। वे टोपिया छिन जाने से दुखी थे। बंदरो का सरदार सुबह से ही दूसरे जंगल में गया हुआ था। अभी-अभी लौटा तो बंदरो ने आज का वाकया, अपने सरदार को सुनाया। वह नाराज हुआ और उसने विचार विमर्श हेतु बंदरो की सभा आयोजित कर ली। वह क्रोधित होकर बंदरो को संबोधित कर रहा था-

‘‘ तुम लोगो में बुद्वि नाम की चीज है, या नही । जब परमात्मा बुद्वि का वितरण कर रहा था, तब तुम लोग शायद सो गए थे। बेवकूफो, मानव आज भी हमें नकलची समझता है। मानव हमारा ही विकसित रुप हैं। हमें इस धारणा को तोडना होगा कि इंसान की नकल करना हमारा स्वभाव हैं। ध्यान से सुनो मूर्खो। अब कभी कोई टोपी बेचने वाला, इस पेड के नीचे सो जाए और तुम टोपिया लेकर नीम पर चढ जाओ तब टोपीवाला, अपनी टोपी उतारकर तुम्हारी तरफ उछाल दे तो तुम लोग अपनी टोपिया नही उछालोगे।‘‘

    

सरदार की बातो को सभी बंदर ध्यान-मग्न होकर सुन रहे थे। उनके चेहरो पर आत्मग्लानि के भाव, साफ-साफ दिखाई दे रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा था। इस सन्नाटे पर तब चांटा पडा जब, एक बूढे बंदर ने हिम्मत करके पूछा - ‘‘ तो सरदार हमे क्या करना चाहिए ?

‘‘ हमे, वह टोपी भी लपक लेनी चाहिए।‘‘ सरदार ने आदेश पारित किया। सभी बंदरो ने हॉ, में अपनी गर्दने हिला दी। इस संकल्प के साथ सभा समाप्त हुई कि वे अब इंसान की नकल नही करेगें। टोपी वाला, उनकी तरफ टोपी उछालेगा तो हम उसकी टोपी लपक लेगे। अपनी टोपिया किसी भी हालत में नीचे नहीं फेकेंगें।

      

टोपीवाले के पुत्र ने पिता की आज्ञा की अनुपालना में गॉव-गॉव, ढाणी-ढाणी, टोपिया बेचना शुरु कर दिया। जगत में संयोग बहुत होते हैे। उसका पुत्र भी उसी पेड के समीप से गुजर रहा था। उसके मन में आया कि इस घनी छॉव वाले पेड के नीचे थोडा विश्राम करकें फिर आगे चलेगें। वह पेड के नीचे चादर बीछाकर लेट गया। थका हुआ था। कब नींद के आगोश में चला गया, उसे पता ही नहीं चला।

    

बंदरो का समूह टकटकी लगाए हुए देख रहा था। जैसे ही उन्हे यकीन हो गया कि टोपीवाला गहरी नींद मे जा चुका है। सभी बंदरो की नजरे मिली। वे इस तरह से नीचे उतरे ताकि आवाज नहीं हो। उन्होने टोपियों का गट्ठर खोला और सभी टोपिया सिर पर ओढकर पेड पर जा बैठे। सभी एक दूसरे की तरफ देखकर किलोलिया कर रहे थे। इसी बीच टोपीवाले की ऑख खुल गई। उसने अपने गट्ठर को संभाला तो गट्ठर को नदारद पाया। वह बेचैन हुआ। फिर उसकी नजर पेड पर गई तो देखा कि पेड पर बैठे सभी बंदरो ने टोपिया पहन रखी हैं। वे उसे देखकर दॉत निकाल रहे है। वह मुस्कुराया। उसे याद आया कि उसके पिता ने समझाया था कि बंदर नकलची होते है। इंसान जैसा करता है वेसा ही बंदर करते हैं। उसने अपनी टोपी सिर से उतारी और बंदरो की तरफ उछाल दी। संयोग से एक बंदर के सिर पर टोपी नही थी। उस बंदर ने वह टोपी भी लपककर अपने सिर पर ओढ ली और दॉत निकालकर टोपीवाले को चिढाने लगा। किसी भी बंदर ने जमीन पर अपनी टोपी नहीं फेंकी ।

       

टोपीवाला हैरान हुआ। उसने पत्थर फेंकने शुरु कर दिए। पत्थरो से बंदर डरे नही। पत्थर को अपनी तरफ आता देखकर शरीर को आगे पीछे, करके स्वंय को बचा लेते। टोपीवाला निराश होकर, हाथ मलता हुआ, घर की ओर चल पडा। बंदरो की खुशी परवान चढ रही थी। पेड पर उत्सव जैसा महौल हो गया। सरदार अपनी अक्ल का लोहा मनवाने में कामयाब रहा।

   

 
 
 

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Lakshit Bhatt
Lakshit Bhatt
02 may

ओशो एक महान आध्यात्मिक गुरु हैं जिनकी शिक्षाएँ मुझे जीवन को गहराई से समझने, स्वयं को जानने और मानसिक शांति पाने में मदद करती हैं। उनका ध्यान, प्रेम और स्वतंत्रता पर आधारित दृष्टिकोण मेरे सोचने के तरीके को सकारात्मक रूप से बदलता है और मुझे अधिक जागरूक, स्वतंत्र और आनंदमय जीवन जीने की प्रेरणा देता है।


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