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ओशो हमारे विवेक को जागृत करते है। (भाग : 2, ब्लॉग : 3)

  • Writer: Ayub Khan
    Ayub Khan
  • May 5
  • 34 min read

Updated: May 9

दिनांक : 05.05.2025 


पिछले ब्लॅाग में हमने मैत्री की साधना पर चर्चा की। अेाशो के मैत्री भाव के प्रभाव अैार जीवन के अनुभव आपके साथ शेयर किए। मैत्री भाव का विस्तार करने का एक अनुभव इस ब्लॅाग में पढिए--


      

इस प्रकार हम अपने भावो की शुद्वि के उपाय कर सकते है। भावनाए तरंगित होकर दूसरे व्यक्ति तक पहुॅचती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हैं। एक व्यक्ति के प्रति मेरे मन में कई कारणो से शत्रुता के भाव विकसित होते गए। हमारे बीच कोई मूलभूत विवाद नहीं था। बस समझ की कमी के कारण पहले तो संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हुई फिर एक घटना के तंतु दूसरी घटना से संयोगवसात जुडते चले गए। मुझे याद आया कि मैत्री और प्रेम इस शत्रुता के झझावात के वेग को कम कर सकते है। मै प्रत्येक रात्रि को छत पर चला जाता और उस व्यक्ति को प्रेम और मैत्री के संदेश भेजने लगा। धीरे-धीरे मन हल्का होना शुरु हो गया। मुझे ऐसा प्रतीत होनें लगा कि सिर से बोझ कम हो रहा हैं। यह प्रक्रिया पंद्रह दिन निरंतर चलती रही। तनाव का ग्राफ तो दिन-प्रतिदिन नीचे आ ही रहा था बल्कि एक चमत्कारिक घटना घटित हो गई। मेरे फोन पर उस व्यक्ति नें गुड मोनिंग का मैसेज भेजा। पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह मैसेज उसी शख्स का है। लेकिन आई0डी0 कॉलर ने सच्चाई की पुष्टि कर दी। तनाव का ग्राफ शून्य के स्तर पर आ गया। सोहलवें दिन की रात्रि को फिर मैने प्रेम और मैत्री का संदेश भेजा। सतरवें दिन फिर गुड मोर्निंग का मैसेज पढनें को मिला। एक संदेश भी लिखा था कि क्या हम आज शाम निखिल की शादी के फंक्शन में मिल सकते हैं? अब तो मेरा विश्वास यकीन में तब्दील हो गया। अब कोई शक सुबाह नहीं रह गया था कि यह सब मैत्री के संदेशो का ही परिणाम हैं। शाम को शादी के फंक्शन में एक ही टेबिल पर भोजन किया। कई मुददो पर खुलकर बात हुई। निष्कर्ष निकला की संवादहीनता से ऐसे हालात पैदा हुए। मैत्री के संदेशों की तंरगो ने उनके ह्रदय की वीणा को झंकृत कर दिया।

           

ऐसे होता है, मैत्री संदेशो का परिणाम।

   

ऐसे संदेश और भावो के मूल में कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। यह सब कार्य अप्रयोजन से हो। दूसरे शब्दो में मैत्री भाव के संदेश सिर्फ अपने आनंद के लिए भेजे। इन संदेशो के नियमित प्रवाह से हमारा ही मैत्री केंद्र मजबूत होगा। यदि दिन में एक ही कार्य अकारण करे तो मैत्री भाव प्रगाढ होने के साथ-साथ आनंद की भी अनुभूति होगी। एक व्यक्ति को प्रेम करना और उसके बदले कुछ नहीं चाहना। ओशो की दृष्टि में यह कोई मंहगा सौदा नहीं है। प्रेम को प्रकट करने के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होने से प्रेममय स्थिति के दरवाजे खुलने लगते हैं।


सदगुरु ओशो ने भावनाओ को शुद्व करने का दूसरा मंत्र दिया है- करुणा । करुणा को हम दया के समकक्ष भी मान सकते हैं। करुणा भी हृदय में स्वतः उत्पन्न हो, यह आवश्यक नहीं हैं। कइ ऐसे साधक भी है। जिनके हृदय में करुणा के तार स्वतः झंकृत होते हैं। लेकिन ऐसे लोगो की संख्या अगुंलियों पर गिनी जा सकती हैं। अंधिकांश लोगो के हृदय की वीणा में तार तो हैं लकिन वे इन तारो से अनभिज्ञ हैं। ऐसे लोगो के हृदय में वीणा के तारो को सजग और विकसित करने हेतु प्रकृति प्रदत्त करुणा केंद्र को झंकृत होने के लिए उपाय करने होगें। हम सब जानते है कि जीवन क्षणभंगुर हैं। लकिन इसे स्वीकार करना कठिन है। यहां मानव जीवन ही नही प्रत्येक वस्तु भी स्थायी नहीं हैं। यदि यह बोध हो जाए कि हमारे आसपास रहने वाले लोगो के बारे में हमें यह बोध हो जाए कि जो लोग आज हमें नजर आ रहे हैं,  हो सकता हैं कि आज का दिन उनके जीवन का अंतिम दिन हो जाए? यदि ऐसा ख्याल प्रबल हो जाये तो प्रत्येक मानव के प्रति स्वतः ही दयाभाव मैत्री संदेशो का उदय होगा। इसी दयाभाव को ओशो करुणा कहते हैं। ओशो एक बगीचे में गए। वहाँ फूलो की खूबसूरती मनमोहक थी। बडे प्रेम भाव से ओशो ने प्रकृति के उपहारों को निहारा । लेकिन दूसरे ही पल उनके मस्तिष्क में विचार आया कि इतने खुबसूरत फूल संध्यां के आगमन पर मुरझा जाएगें। यह विचार आते ही फूलो के प्रति करुणा का भाव उदय हो गया। यह जानते हुए कि जीवन क्षणभंगुर है फिर भी इतनी वासना, द्वेष और पीड़ाएँ क्यो उत्पन्न हो रही हैं? इसका एक मात्र कारण हृदय में स्थित करुणा केंद विकिसत नहीं हुआ हैं।


स्वंय के भीतर करुणा के केद्र को विकसित करने के लिए अभ्यास तो हमें ही करना होगा। अेाशो ने एक प्रयोग इजाद किया हैं। इस प्रयोग से हमारा करुणा केंद्र तो विकसित होगा ही साथ ही साथ आंगंतुक के व्यक्तित्व में बदलाव नजर आएगा। जब भी कोइ व्यक्ति मिलने आए तो हम स्वंय में लीन होकर, एक शांति की अनुभूति करते हुए बैठ जाए। जब वह शख्स हमारे चेंबर में प्रवेश करे तक मन में उसके लिए शांति का प्रबल भाव किया जाए उसके जीवन में शांति के आगमन की कामना की जाए । हमें बोलकर एसी कामना करने की आचश्यकता नहीं हैं। बल्कि मन को एकाग्रचित करके सम्पूर्ण्र शक्ति के साथ ऐसा सोचना हैं। ऐसा भाव करना हैं। अेाशो कहते हैं कि अचानक आप उस आगंतुक में एक परिवर्तन महसूस करेंगे। उसमें शांति उतरनी प्रांरभ हो जाएगी। वह शख्स पहले से भिन्न नजर आएगा।

इस छोटे से प्रयोग को मैने कइ बार प्रयुक्त किया। अभी एक वर्ष पहले मेरे मित्र के पुत्र का विवाह था। उसके एक ही पुत्र संतान थी, पुत्री नहीं थी। उसने विवाह की तिथि तय होते ही मुझे सूचित कर दिया था कि मुझे ऑफिस में छुटटी अप्लाई कर देनी चाहिए। मैने सोचा कि अभी विवाह में तीन महिने है। आराम से छुटटी के लिए अप्लाई कर देगें। फिर काम में मशरुफ हो गया अैार छुटटी अप्लाई करना भूल गया। मित्र ने प्रद्रह दिन बाद फोन करके फिर याद दिलाया तो मैने उसको कह दिया की दो दिन की छुटटी मंजूर हो गई हैं। वह बहुत खुश हुआ। फिर मैंने अप्लाई किया अैार मुझे दो दिन की छुटटी मिल गई। लेकिन इत्तेफाक से में शादी में शरीक नही हो पाया। हुआ यूं कि उन दो दिनो में बडे अफसरो का अचानक दौरा हो गया। छुटटी मंजूर होने के बावजूद भी मुझे ऑफिस जाकर इंतजाम करने पडे। शादी में शरीक नहीं होने के कारण मित्र अैार उसका परिवार नाराज हो गया। मुझे अन्य परिजनो से समाचार मिल चुके थे कि सभी लोग बहुत नाराज हैं। मै चितिंत था कि उन लोगो को क्या जवाब दूॅगा। मेरी चिंता और बैचेनी उस वक्त और बढ गई, जब मुझे समाचार मिला कि मित्र और उसका परिवार रविवार को मिलने के लिए मेरे घर आ रहा हैं। मेरी चिंताए और बढनें लगी। सही कहा जाए तो मैं किकर्तव्यविमठता कि स्थिति में था। फिर मुझे ओशो द्वारा इजाद उस ध्यान का ख्याल आया कि आगंतुक के आने पर मन में प्रबल भाव करना हैं कि परमात्मा आगंतुक के हृदय में शांति की लहर उत्पन्न कर दे। आगंतुको का चित्त शांत हो। मैंने पूरे दिन एसे भाव करे । मैं इस छोटे से ध्यान प्रयोग के परिणामों के प्रति आंशकिंत था। सोच रहा था कि कैसे अपनी स्थिति को स्पष्ट कर पाऊंगा?


वे पाँच लोग थे। उनके हाथो में मिठाई के डिब्बे थे। सभी मुस्कुरा रहे थे। पांचो लोग गले मिले। मैं उनके व्यवहार से आश्चर्यचकित था। मित्र बोले--

‘’ हमें हकीकत मालूम हो चुकी हैं। अब अचानक बडे अफसर आ धमके तो उनका इंतजाम तो करना ही पडता है। हमने आपकी हाजरी मान ली हैं।'’

‘’ हाँ। मैने बहुत कोशिश करी कि मै किसी तरह शादी के दिन पहुँच जाऊ। लेकिन मेरी कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। मैने व्हाटसएप पर फक्शन के फोटो देखे थे। अच्छा फक्शन था।

'’ फिर मैने मित्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही। मित्र के परिजन एक साथ बोल पडे --- " हाँ, फंक्शन बहुत शानदार हुआ। एक बार तो मौसम ने सभी को डरा दिया था। फिर मौसम साफ हो गया। "

फिर वे चाय नाश्ता करके राजी खुशी लौट गए।


ऐसे मात्र भाव करने से आगंतुक का मनोमस्तिष्क शांत और सकारात्मक हो जाता हैं। यह छोटा सा ध्यान प्रयोग जीवन में आनें वाली समस्याओ को हल कर देता हैं। मेरे अनुभव पर आप यकीन नहीं करे। आप इस छोटी सी विधि को स्वयं प्रयोग करे और परिणामो से अवगत करावें। परिणाम सकारात्मक ही होगें। यदि आप ने पूरे मनोयोग के साथ ऐसे भाव अपने हृदय की गहराइयों से किए हो तो।


बात करुणा-दया की चल रही थी। ओशो ने बार बार कहा है कि अब तक जितनी भी क्रांतिया हुई है वे क्रोध का परिणाम रही हैं। इन क्रांतियो के परिणाम कभी भी विधायक नहीं रहे हैं। क्योंकि करुणा इनके उद्भव का कारण नहीं थी। ओशो ने जोर देकर कहा कि करुणा की उत्पत्ति ही स्वयं क्रांति का उद्घोष हैं। थोपी गई क्रांतियो के परिणाम कभी भी उत्कृष्ट नही रहे। ओशो के अनुसार जीवन में करुणा-दया के बीज अंकुरित होकर पौधे का आकार लेने लगती हैं तब जीवन में रुपांतरण का श्रीगणेश हो जाता हैं। ओशो ने तो यहाँ तक कहा हैं कि जब आप किसी के साथ प्रेम से भरते है तब यदि आपके आंसु बहने लगे तो उन आंसुओ से सुंदर न कविता होगी और न कोई गीत होगा।


हमारी शिक्षा पद्वति, हमारे संस्कार और हमारी परवरिश के ढंग से करुणा के केंद्र विकसित नहीं हो पाए लेकिन निंदा के केंद्र को फलने फुलने में हमारे परिवेश ने सहयोग दिया हैं। क्षणभंगुर जीवन में यदि हृदय के तार करुणा के भाव से झंकृत नहीं हो पाए तो ऐसे जीवन की साथर्कता ही क्या हैं? परमात्मा ने तो करुणापूर्ण हृदय शरीर में स्थापित करके हमें पृथ्वी पर भेजा था लेकिन हमारे हृदयों में क्रूरता की उत्पत्ति एक दुखद घटना हैं। ओशो ने महाबलेश्वर के ऐतिहासिक ध्यान शिविर में करुणा की उत्पत्ति के सूत्र बताते हुए कहा था------

‘’ अपने चारो तरफ करुणा फेंकें। कितने दुःखी है लोग। उनके दुःख को मत बढाना। आपकी करुणा उनके दुःख को कम करेगी। एक करुणा से भरा हुआ शब्द उनके दुःख को कम करेगा। हम सब एक दूसरे के दुःख को बढा रहे है। हम सब एक दूसरे को दुःख देने में सहयोगी हैं। एक-एक आदमी के पीछे अनेक-अनेक लोग पडे हुए हैं, दुःख देने के लिए। अगर करुणा का बोध होगा, तो आप किसी को दुःख पहुंचाने के सारे रास्ते अलग कर लेंगें। अगर आप किसी को जीवन में कोई सुःख दे सकते हैं तो उसका उपाय करेंगें।


इस शिविर में अेाशो लोगो चेतावनी भी देते है कि-----

‘’ एक बात और ध्यान रखे कि जो दूसरो को दुःख देता हैं, वह आखिर में खुद ही दुःखी हो जाता हैं। जो दूसरो को सुःख देता हैं, वह अंततः सुख को ही उपलब्ध होगा। इसका कारण यह है कि जो मानव दूसरो को सुःख देनें की चेष्टा करता हैं, उसके भीतर सुख के केंद्र विकसित होते हैं। फल बाहर से नहीं आते हैं। फल भीतर ही पैदा होते हैं। हम जो करते हैं, उसी की कामना हमारे भीतर विकसित होती चली जाती हैं। जो प्रेम चाहता हैं, वह प्रेम को फैला दे। जो आनंद चाहता हैं, वह आनंद फैला दें। जो यह चाहता हो कि उसके घर फूलो की बारिश हो, तो वह लोगो के घर मे फूल फेंक दें। अन्य कोई रास्ता नहीं हैं। प्रत्येक को करुणा का भाव विकसित करना होगा। '’


ओशो, हृदय में करुणा के फूल खिलने की सरल और व्यावहारिक विधिया बता रहे। हम, जिसके प्रति, जो भाव हृदय में सजोये रखते है, वैसे ही परिणाम सामने आते हैं। सब कुछ हम पर निर्भर हैं। जैसे बीज बोएंगे, वैसी ही फसल काटेगें। ओशो तो करुणा को स्वास्थय से भी जोडते हैं। उनका तो यहाँ तक कहना हैं कि सिर्फ करुणा ही एक मात्र भाव है, स्वस्थ होने का। शरीरिक रोग के कई कारण हो सकते है लेकिन प्रेम का अभाव, सबसे महत्वपूर्ण कारण है। ओशो, प्रेम के अभाव को रोग का संभावित कारण नही बता रहे है, वे दावे के साथ कह रहे हैं कि रोग का एक मात्र कारण प्रेम का अभाव हैं। या तो ऐसे मनुष्य के जीवन में प्रेम प्रविष्ट ही नहीं हुआ या फिर उसने जीवन में प्रेम व करुणा के प्रविष्ट होनें के सब द्वार बंद कर दिए। मानव को रोगो का किसी न किसी प्रकार से प्रेम के अभाव से गहरा ताल्लुक रहा है। चाहे मानव प्रेम कर नहीं पाया हो या फिर प्रेम को बांट नहीं पाया हो तो जीवन में दुःख प्रविष्ट हो जाता हैं। प्रेम व करुणा का अभाव मन में ऐसी गाँठे बांध देता है जिनका खुलना बहुत मुश्किल हो जाता हैं। यह अदृश्य गांठे न तो नजर आती हैं और न ही महसूस होती हैं। ओशो जैसे महान रहस्यदर्शी ही मन की गहरी परतो में जाकर घोषित करते हैं कि भीतर की यह गांठें शारीरिक और मानसिक बीमारी के रुप में प्रकट होती हैं। बिना भोजन के शरीर कमजोर और कुरुप हो जाता हैं, उसी प्रकार बिना प्रेम और करुणा के आत्मा कमजोर और कुरुप हो जाती हैं। ओशो के अनुसार दुःख मात्र प्रेम के अभाव के सिवा और कुछ नहीं हैं। जब तक प्रेम के बीज अंकुरित नही होगें तब तक आत्मा के अस्तित्व का अभास ही नहीं होगा। ओाशो ने करुणा को प्रेम का शुद्वतम रुप कहा हैं। करुणा में दैहिक और आध्यात्मिक दोनो प्रेम समाहित हो जाते हैं। एक अर्थ में करुणा को प्रार्थना भी माना जा सकता हैं। करुणा को ऊर्जा का उच्चतम रुप भी माना गया हैं।


सभी सदगुरुओ ने कहा हैं कि करुणावान मनुष्य सिर्फ दाता होता हैं। करुणावान मनुष्य कुछ देकर आनंदित होता हैं। औशो, एक उदाहरण देते हैं कि करुणा में हम अनुगृहित होते हैं। इसका मूल कारण यह है कि दूसरे ने हमारे से कुछ लिया हैं। जैसे हम किसी के लिए फूलो का गुलदस्ता लेकर जाए और वह हमारे गुलदस्तें को स्वीकार कर ले। इन भावो से ओत-प्रोत व्यक्ति इसलिए अनुगृहित होता है कि सामने वाले ने उसके प्रेम को ग्रहण कर लिया। करुणावान को समृद्व कहा गया हैं। वह जीवन के शिखर पर हैं। वह सिर्फ बांटता है और बिना प्रतिक्रिया देखे, आगे बढ जाता हैं।


इस प्रकार वे धन्यभागी है जिनके भीतर करुणा के भावो का उ्दभव हुआ हैं। जो करुणा की ऊर्जा को जगाना चाहते है उनके लिए ओाशो ने सरलतम प्रयोग सुझाए है, जिनका अभ्यास किया जाए तो जीवन को करुणायुक्त बनाया जा सकता है। यह प्रयोग विधिया मेरे जीवन में कैसे सार्थक हुइ, मैनें उसका संक्षिप्त विवरण दे दिया हैं। कामना करता हूं कि आप द्रारा किए जाने वाले अभ्यास सफल होगे और आप भी करुणा के माध्यम से प्रेमरस का पान कर सकेगें।


जब हम भावों के शुद्विकरण के मार्ग पर निकल गए है तो हमें पहले मैत्री, फिर करुणा और उसके बाद आनंद-मग्नता की साधना करनी होगी। आज निनन्या में प्रतिशत लोगो के चेहरे बुझे हुए आभाविहिन नजर आएंगें। दुःख और संताप की चादर ओढे हुए प्रतीत होगें। लगभग सभी के साथ ऐसा ही हैं। अब क्या करे, कि जीवन में आनंद और उत्सव घटित हो सके ताकि भाव शुद्वि के तीसरे सोपान पर भी सफलता की पताका पहनाई जा सके क्योंकि उदास और विषाद से भरा हुआ चित्त किसी बडे अभियान पर नहीं निकल सकता हैं। यदि गहराई से विचार करे तो प्रकट होगा कि उदासी और खुशी, एक आदत है। हमनें उदास रहने का अभ्यास किया तो उदासी की आदत हमारा स्वभाव बन जाती हैं। हम चाहें तो प्रसन्नता को भी अपने स्वभाव में आसानी से समाहित कर सकते हैं।


यह ओशो की मानवता को एक महान देन हैं कि वे सदैव प्रत्येक कृत्य, घटना और परिणाम के दोनो पहलुओ से हमें रुबरु करवाकर हमारे विवेक को झंकझोड़ते हैं। फिर अकाट्य तर्को और बोध कथाओ के माध्यम से उसके विधायक पक्ष को हमारे सामने रखते है। कई बार तो में आश्चर्य की अतिरेक्ता से भर जाता हूं, जब ओशो स्वयं अपने जीवन की, किसी घटना से सकारात्मक पक्ष को निकालकर हमारे सम्मुख रखते हैं। महाबलेश्वर के ऐतिहासिक साधना शिविर में उन्होनें अपने जीवन की जिस घटना का वर्णन किया है, उसे हुबहु लिखने पर ही उसका मर्म समझ में आ सकेगा। ओशो के शब्दो में ---

‘’ मैं छोटा था और मेरे पिता गरीब थे। उन्होनें बडी मुशिकल से एक अपना घर बनाया। गरीब भी थें और नासमझ भी थे क्योंकि कभी उन्होनें मकान नहीं बनाए थे। उन्होंने बडी मुशकिल से एक मकान बनाया। वह मकान नासमझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुंचे भी नहीं और वह पहली बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुखी हुए। वें गांव के बाहर थे। उनको मैनें खबर भेजी कि मकान तो गिर गया और बडी आशाएँ थी कि उस मकान में जाएगें । वे तो सब धूमिल हो गई । वे आए और उन्होनें गांव में लड्डू बांटें। उन्होनें कहाः ’’परमात्मा का धन्यवाद। अगर आठ दिन बाद मकान गिरता, तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता । " हम आठ दिन बाद ही उस घर में जानें वाले थे। वे उसके बाद जिंदगी भर इस बात से खुश होते रहे कि मकान, आठ दिन पहले ही गिर गया। आठ दिन बाद गिरता तो बहुत मुशकिल हो जाती। यूं भी जिंदगी देखी जा सकती हैं। जो ऐसे जिंदगी को देखता हैं, उसके जीवन में बडी प्रसन्नता का उद्भव होता हैं। आप जिंदगी को कैसे देखते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता हैं। जिंदगी में कुछ भी नहीं हैं, आपके देखने के तरीके पर, आपका एटीट्युड, आपकी पकड, आपकी दृष्टि, सब कुछ बनाती और बिगाडती हैं।'’


आनंदमग्नता और प्रसन्नता का जीवन में तब उद्भव होता है, जब हमारा जिंदगी को देखने का दृष्टिकोण सकारात्मक हो जाए। हम परिवारजनो, मित्रो और परिचित लोगो की विशेषताओ को जिस नजरिये से देखते है। वह नजरिया सकारात्मक हो जाए तो हमारी भावनाए भी शुद्व हो सकती है। प्रयास तो करना ही होगा। साधना तो हमें ही करनी होगी। जैसे हमारा एक परिचित व्यक्ति नशा करने का आदि हो गया हो लेकिन वह अपने ऑफिस में कभी भी नशा करके नहीं जाता है। ऑफिस का काम पूरी लगन और ईमानदारी के साथ निष्पादित करता हैं। अब मित्र मंडली में उसके व्यक्तित्व पर दो तरह से चर्चा हो सकती हैं। प्रथम - मेरा परिचित कर्तव्य परायण और निष्ठावान है। वह थोडा नशे का शोकिन है लेकिन उसके इस शैाक से उसकी कार्य के प्रति निष्ठा, लगन और ईमानदारी प्रभावित नहीं होती हैं। द्वितीय - यह भी कहा जा सकता हैं कि वह नशेबाज है, उसमें चाहे कितनी ही लगन और निष्ठा हो, वह कोई मायने नहीं रखती हैं।


व्यक्तित्व चर्चा का प्रथम तरीका विधायक और सकारात्मक हैं। यह तरीका मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता हैं। द्वितीय, तरीका नकारात्मकता और खिन्नता उत्पन्न करता हैं। हमें जिंदगी को देखने का ढंग विधायक रखना होगा। इस ढंग से प्रसन्नता का आगमन होता है और जीवन से बोझ धीरे-धीरे कम होने लगता हैं। जब बोझ कम होगा तो मस्तिष्क हल्का होगा और हमारी जीवन ऊर्जा व्यर्थ के कार्यो में खर्च नहीं होगी।


मेरे मस्तिष्क में बार-बार यह प्रश्न उठता हैं कि जब, औशो, जैसी महान चेतना यह उद्घोष करती है कि आनंदमग्नता प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव है। इसे हम, ऐसे भी समझ सकते कि नवजात शिशु के हृदय में परमात्मा प्रसन्नता और आनंद के केंद्र लगा कर भेजता है। बालक की आयु में जैसे जैसे वृद्वि होनें लगती है वैसे-वैसे, प्रसन्नता और आनंद के केंद्र सिकुडते चले जाते है। एक स्थिति ऐसी आती है जब हृदय में फिट किए गए आनंद और प्रसन्नता के केंद्र पर संताप, दुख, पीडा और चिंता के तत्व बहुतायत में प्रविष्ट होकर परमात्मा द्वारा प्रदत्त, इस केंद्र पर आच्छादित हो जाते है। परिणामस्वरुप यह केंद्र विलुप्त हो जाता हैं। हमारे परिवेश की वजह से यह अतिमहत्वपूर्ण केद्र धीरे-धीरे ओझल हो जाता हैं। अधिकांश व्यक्तियों की इस समस्या पर ओशो ने विश्व के नामी गिरामी मनोवैज्ञानिको के शोघ ग्रंथो को पढने और स्वयं के अनुभव से यह निष्कर्ष निकाला कि मानव के मन में दुख, पीडा और संताप के भावो की जडे इतनी गहरी जम चुकी है कि मानव इन भावो का अभ्यस्त होकर इनकी जडो में खाद-पानी डालकर इन्हे पोषित कर रहा है। जब कभी सुख या आनंद की कोई झलक नजर आती है तो वह प्रसन्न होने के बजाय बेचैन हो जाता हैं। उसे यह झलक वास्तविक प्रतीत नहीं होती क्योंकि प्रसन्नता और आनंद का अनुभव और बोध समाप्त हो चुका है। मीडिया ने भी दुख भरी खबरे दिखाने और छापने की होड लगा रखी हैं। हम भी जब आपस में मिलते है तो बीमारी की बाते बढा चढाकर बताने के अभ्यस्त हो चुके हैं। समाचार पत्र भी ऐसे समाचारो को कवर करने से परहेज करते है जिनसे आनंद का संचार होता हो। दूसरी ओर हत्या, बलात्कार, चोरी, लूट की खबरे मुख पृष्ठो की शोभा बढाती हैं। किसी की बगिया में सुदंर गुलाब खिला हो उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाएगा। हम भी हत्या, बलात्कार और लूट की खबरे रस ले लेकर पढते है। यह क्या हो गया है? विश्व में कही युद्व हो रहा हो तो ऐसी खबरे लाइव दिखाई जा रही है। जनमानस पर पडने वाले प्रभाव के बारे में कोई चितिंत नहीं हैं।


कहना यह चाह रहा हू। कि जब मित्र आपस में मिले तो प्रसन्नता की बाते करे। परिवारजन जब डिनर की टेबिल पर एक साथ बैठे तो खुशी का माहोल निर्मित करने का प्रयास करे। एक दूसरे को हास्य कथाए सुनाए। फूलो की सुदंरता और खुशबु पर चर्चा करे। गुलाब के साथ सलंग्न काँटों पर चर्चा करना औचित्यहीन हैं। काँटों पर की गई चर्चा सकारात्मक प्रभाव नही छोडेगी। हम खोज तो आनंद की करना चाहते है। लेकिन ऐसे कृत्यो में सलंग्न है जो चिंता, बेचेनी ओर संताप को आमंत्रित करते हैं। जिन भावो को हम आमंत्रित करेगें, वे भाव ही जीवन में प्रविष्ठ होंगे। हम जानते हैं कि यह मार्ग, बेचेनी और संताप की ओर जा रहा है फिर भी उसी मार्ग पर निरतंर गमन करना मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक हैं। प्रसन्नता और आनंद को जीवन में प्रविष्ट होने के लिए सवर्प्रथम तो उन दरवाजो को बंद करना होगा जहा से बैचेनी, दुख संताप और अवसाद का आगमन होता हैं। इसलिए ओशो ने तो यहां तक कह दिया था कि आदमी दुखवादी है। वह दुखो का जानबूझकर संग्रह करता हैं। यदि आदमी दुखो का संग्रहकर्ता नहीं होता तो पृथ्वी पर स्वर्ग अवतरित हो जाना चाहिए था। आदमी की दुखवादी प्रवृति के कारण ही जीवन नारकीय हुआ है। अगर लोग प्रसन्नचित होते तो वे क्यो दूसरो को दुख देते। सरल सा सिद्धांत हैं कि जिस व्यक्ति के पास जो होता है, वही, वह दूसरो को दे सकता है। और तो और अपने ही लोग ज्यादा दुख देते हैं। लोगो के पास संपदा ही दुख की हैं तो वे दुख ही देंगें। आनंद और प्रसन्नता उनके भंडारगृह में है नही, तो फिर वे कैसे दूसरो को आनंद और प्रसन्नता बाँट सकते हैं। मेरे विचार में कोई व्यक्ति प्रसन्न रहने का संकल्प कर ले तो उसके जीवन में प्रसन्नता का पदार्पण हो सकता हैं। जब कोई व्यक्ति प्रसन्न रहता है तो आसपास प्रसन्नता का घेरा विकसित होनें लगता हैं। वातावरण में भी परिवर्तन महसूस होनें लगता हैं। फिजा में तबदीली आने लगती है। ऐसे प्रसन्न मन से भाव शुद्वि में सहयोग मिलता हैं।


ओशो ने मानव के प्रसन्न और आनंदित होनें के कई सूत्रो की इजाद की हैं ताकि उसकी प्रसन्नता से जीवन में बसंत आए। प्रेम के मेघ बरसे और दुखी मनुष्यता मे आनंद के बीज अंकुरित हो सके। जब आनंद के बीज अंकुरित हो और उसकी महक आने लगे तब ओशो आगाह करते हैं कि उस समय आनंद के साथ तादात्मय स्थपित मत कर लेना । ऐसा मत सोचना कि मैं आनंद हो गया। जागरुक रहकर साक्षी रहते हुए देखना कि आनंद तो चाारो तरफ से घेरे हुए हैं लेकिन मैं अलग हूँ। आनंद तो एक दृश्य है, मै उस दृश्य को देखने वाला दृष्टा हूँ। ओशो के अनुसार दुख से तो स्वयं को अलग करना आसान है परंतु सुख से अलग होना जरा कठिन हैं। इसलिए ओशो ने साधको को सलाह दी कि इस प्रक्रिया को आनंद से ही आरंभ करना उचित होगा। इसे ऐसे समझना होगा कि जब ध्यान के दौरान आनंद का घेरा बनने लगे तब सोचना, कि मैं तो मात्र दृष्टा हूँ। कल पीडा ने घेरा था और आज आनंद ने, हो सकता है कि कल मै पीडा के घेरे मैं आ जाउॅ? लेकिन मैं तो दृष्टा हूँ। इसी दृष्टा भाव में स्थिर होना ही साक्षी होना है। इस प्रक्रिया से भावो का शुद्विकरण होगा। हमारी भावनाये शुद्व होगी।

ओशो एक सदाबहार खुशमिजाज साधु की कथा से प्रसन्नता के भाव और अधिक स्पष्ट करते है। मेरी दृष्टि में ओशो इस युग के महान कथाकार हैं। इस कथा को ओशो के शब्दो में लिखना ज्यादा ठीक होगा। बोध कथा सुनिये ओशो के हुबहु शब्दो में-----

‘’ एक साधु हुआ। वह जीवन भर इतना प्रसन्न रहा कि लोग हैरान थे। लोगो ने उसे कभी उदास और पीडित नहीं देखा। उसके मरने का वक्त आया तो उसने कहा कि अब मैं तीन दिन बाद मर जाउॅगा। यह मैं इसलिए बता रहा हूँ कि स्मरण रहे कि जो आदमी, जीवन भर हंसता रहा, उसकी चिता पर कोई नहीं रोए। जब मैं, मर जाऊ तो मेरे झोपडे पर मातम नही हों। यहाँ सदैव आनंद और उत्सव था। इसलिए मेरी मृत्यु को भी उत्सव बनाना । लोग तो दुखी हुए। वह अदभूत आदमी था। उससे प्रेम करने वाले लोगो की संख्यॅा बहुत थी। प्रेमी लोग साधु के झोपडे पर एकत्रित होना शुरु हो गए। वह मरते वक्त तक लोगो को हसाँ रहा था। वह प्रेम की अदभूत बातें कर रहा था। सुबह मरने से पहले उसने गीत गाया। गीत, गाने के बाद उसने कहा कि ' याद रखना, मेरे कपडे मत उतारना । मेरी चिता पर मुझे, कपडो सहित लेटा देना। मुझे चिता पर लेटाने से पहले मुझे स्नान मत करवाना।

फिर वह मर गया। उसे स्नान नहीं करवाया गया। उसे कपडो सहित चिता पर लेटा दिया गया। उसके मित्र और शिष्य उदास और गमगीन थे। लेकिन सभी लोग यह देखकर हैरान हुए कि उसने अपने कपडो में फुलजडिया और फटाखे छिपा रखे थे। जैसे ही चिता को अग्नि दी गई तो पटाखे और फुलजडिया छूटने शुरु हो गए। उसकी चिता भी उत्सव बन गई। लोग खिलखिलाकर हँसने लगे। लोगो ने कहा जिसने जिंदगी भर हॅसाया, वह मरनें के बाद भी लोगो को हँसा गया। '’


ओशो, इस बोध् कथा से संदेश देना चाहते है कि दुनिया में ऐसी विभूतिया भी हुई है जो लोगो में आनंद बाँटती हैं। वे अपने हास्य से हमें प्रेरित करते हैं कि हम भी इस तरह से जिंदगी जी सकते हैं। जब वह साधु ताजिंदगी हॅसाकर लोगो को उदासी और पीडा के घेरे से बाहर निकालकर, उन्हे उत्साह का माहोल दे सकता है तो हम भी तो ऐसा कर सकते है। बस समझ और बोध की बात हैं। ऐसा किया जाना असंभव नहीं हैं। मोबाइल क्रांति के इस युग में इसका सदुपयोग और दुरुपयोग दोनो हो रहे हैं। मुझे समाचार पत्रो और चिकित्सक मित्रो से ज्ञात हुआ कि प्रत्येक दिन आधा घंटे तक जोर जोर से हँसने से रक्तचाप स्थिर रहता है। मेरी माता जी गाँव में रहती है। मैं जयपुर में रहता हूँ। मै और माता जी उच्च रक्तचाप से पीडित थे। दवा भी ले रहे थे लेकिन कभी कभी चिंता या थकान से रक्तचाप बढ जाया करता था। मैने यू ट्यूब पर लाफटर शो देखे। जिन लोगो ने लाफटर क्लब की सदस्यता ले रखी थी, उनके साक्षात्कार देखे। कॅालोनी में रहने वाले क्लब के सदस्यों से मुलाकात कर उनके अनुभव जानें। उन लोगो का भी यही अनुभव रहा कि जबसे उन्होने हास्य क्लब की सदस्यता ले है तब से वें स्वंय को प्रसन्नचित्त महसूस करते हैं। उनका यह भी अनुभव था कि पूरी ताकत से घर में हँसना संभव नहीं है। तेज आवाज के कारण घर के सदस्यों और पडोसियो को कठिनाई का सामना करना पडता हैं। इसलिए वे हास्य विशेषज्ञ द्वारा सावर्जनिक पार्क में स्थापित क्लबो में जाने लगे। वहाँ समूह में हँसने पर किसी को तकलीफ भी नही होती है। हास्य विशेषज्ञ अपने एक घंटे के कार्यक्रम में विभिन्न क्रियाकलापो के माध्यम से हॅसाने का प्रयास करते है। समूह मे सब लोग उनका अनुसरण करते है। इस तरह सुबह प्रकृति के सानिध्य में आनंद उत्सव के एक घंटे के कार्यक्रम के बाद रक्तचाप और मानसिक स्थिति स्थिर हो जाती है। मेरे और माताजी के उच्च रक्तचाप की बीमारी थी। अब मैं हास्य विशेषज्ञो से टिप्स लेकर समझ गया था। माताजी को हास्य क्लबो के वीडियों दिखाए और उन्हे आश्वस्त किया कि सुबह पौधेा के पास बैठकर हँसने से उच्च रक्तचाप सामान्य स्तर पर आ सकता है। उनके जीवन में यह पहला अवसर था। मोबाइल का चार्ज बात करने पर नहीं, समय के हिसाब से नियत हो चुका था। अर्थात एक माह में बात करो या नहीं रिचार्ज तो कराना ही पडेगा। रोज एक घंटे बात करो तो भी एक माह बाद ही रिचार्ज कराना होता हैं।


मोबाइल कंपनियो की इस योजना का हमने लाभ उठाया। मैने मोबाइल स्थापित करने वाले एक फिट ऊँचे दो स्टैंड खरीदे। एक माता जी को दिया और एक मेरे पास रख लिया। मैनें मेरा फोन स्टेंड में फिट किया और माता जी ने भी अपना मोबाइल अपने स्टेंड पर फिट कर लिया। हम दोनो ने अपने मोबाइलो के स्पीकर ऑन कर दिए। अब मैं सवेरे शेव बनाते हुए विभिन्न प्रकार की हास्य कथाए मोबाइल पर सुनाने लगा तो माताजी को हॅसी आने लगी। वह धीरे से हँसती तो मै उनको कहता कि यह तो बीमार आदमी की हॅसी है। जवान आदमियों की भांति खुल कर हँसो फिर मैं उन्हे खुलकर हँसकर बताता और वे भी पूरा जोर लगाकर हँसने का प्रयास करने लगी। स्पीकर पर हाँस्य वार्ता का लाभ यह था कि इस दैारान मै, शेव बनाने और दिनचर्या के सामान्य कार्य भी आसानी से करता रहता था। कहने का अर्थ यह हैं कि एक घंटे के इस कार्यक्रम के लिए अलग से समय निकालने की जरुरत नहीं रहती थी। चार सालो से मोबाइल पर हमारा यह कार्यक्रम निरंतर चालू हैं। बिना किसी अवकाश के। मेरा और माताजी का रक्तचाप अब सामान्य है। मस्तिष्क, शांत रहता है। एक घंटे तक पूरी ताकत से हँसने से ओशो के सक्रिय ध्यान का दूसरा चरण, केथार्सिस पूर्ण हो जाता हैं। ओशो ने पाँच चरणो के इस ध्यान प्रयोग से केथार्सिस पर काफी बल दिया है। हमारे मन में दमित भावनाए एकत्रित होकर अवचेतन में चली जाती है। जिससे मन के भीतर एक कौलाहल चोबीस घंटे चलता रहता हैं। यह कोलाहल नींद मे भी चलता रहता है जिसे हम ख्वाब के नाम से जानते है। एक घंटे के पूर्ण हास्य से यह दमित भावनाएँ अवचेतन से बाहर निकलती है। मन और मस्तिष्क हल्के होते हैं। ओशो ने केथार्सिस की आवश्यकता का कारण बताते हुए कहा कि जो बाते हमें पंसद नही होती है या जो हमारे काम में व्यवधान उत्पन्न करती हैं। उन्हें बाहर निकालने से शांति का आगमन होता हैं l केथार्सिस को हमारे यहाँ रेचन भी कहा जाता हैं। इस विधि से हम अपने भीतर के क्रोध, दुख, डर आदि को बाहर निकालने का प्रयास करते है। इसमे किसी को रोना आए तो वह रो सकता है। किसी की ईच्छा चिल्लाने की हो तो वह पूरी शक्ति के साथ चिल्ला सकता हैं। जिसको जो स्वाभाविक लगे, वह वैसा करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। इस क्रिया के दैारान आंतरिक कोर को छूने तथा दमन भावो को बाहर फेंकने का प्रयास किया जाता है। कई बार हम नहीं जानते या महसूस नहीं करते लेकिन दमन इतना गहरा होता हैं कि हमें उसके बारें में जानकारी भी नहीं होती है। ओशो के संक्रिय ध्यान के इस दूसरे चरण को हमने हास्य तक ही सीमित रखा। माताजी के साथ रोजाना मोबाइल स्पीकर पर पूरी ताकत के साथ हँसना दैनिक दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया है। चार साल के इस पीरियड में रक्तचाप का रोग ठीक हुआ। मन शांत हुआ। दमित भावनाये निकली तो विचारो के चलने की गति पर भी अंकुश लगा है। मै आनंदित होऊंगा यदि आप भी हमारे रेचन के इस ढंग को आरंभ करे और आजीवन निरंतरता बनाए रखे।


प्रसन्नता और आनंदमग्नता, भाव शुद्वि के लिए क्यों आवश्यक है, इसकी चर्चा में यह निष्कर्ष निकलकर सामने आया कि जब मन प्रसन्न होगा तो प्रत्येक कृत्य को देखने का दृष्टिकोण बदल जाएगा। सब कुछ अच्छा और पवित्र नजर आनें लगेगा।


ओशो द्वारा कही गई, एक आनंदित साधु के अंतिम समय की बोध कथा को हमने महाबलेश्वर के अमृत प्रवचन से उद्वर्त करके लिखा है। इसके विपरित बचपन में बुजुर्गो से सुनी हुई कथा का उल्लेख करना भी प्रसांगिक होगा। इस कथा से हम यह समझाना चाहते हैं कि मानव के मस्तिष्क में ऐसी भी खुराफात पैदा हो जाती है जो संपूर्ण समाज के लिए अहितकर होती है। कथा पर गौर करे--

एक गाँव में एक किसान रहता था। जमीन दस एकड के लगभग थी। अच्छी फसल होती थी इसलिए किसान संपंन था। कोई कमी नही थी फिर भी वह ऊँची ब्याज दर पर गाँव के लोगो को धन भी उधार दिया करता था।कभी कोई जरुरतमंद व्यक्ति उधार धन लेने आता तो कभी तो पत्नी से कहलवा देता कि रामदेव अभी घर पर नहीं है, कल आना। जरुरतमंद दूसरे दिन आता तो उसको कह देता कि कल लिखापढी करके पैसे दे दूँगा। जरुरतमंद फिर अगले दिन आता तो उस दिन लिखापढी तो कर लेता परंतु बहाना बना देता कि अमुक शख्स को पैसा उधार दिया हुआ है। वह आज रात को पैसे लाएगा इसलिए तुम कल ले जाना। अगले दिन जरुरतमंद नियत समय पर पैसे लेने उसके घर आता तो वह जानबूझकर खेतो में चला जाता । फिर अगले दिन वह जरुरतमंद को पैसे देता। इस प्रकार पाँच-छः दिन अकारण किसी को परेशान करने में उसे आनंद आता। कोई किसान किसी मजबुरी में बिजली के पोल पर आंकुडिया डालकर अवैध बिजली ले रहा होता तो वह फोटो खींचकर बिजली विभाग को भेजकर, उस पर बिजली चोरी का केस दर्ज करवा देता। बिजली विभाग सूचनाकर्ता का नाम गुप्त रखता था इसनिए किसी को पता भी नहीं चलता कि शिकायत किसने की थी। लेकिन वह आनंदित होता था। वह लोगो को परेशान करने के नित्त नए तरीके खोजता रहता था। लोग परेशान थे। फिर भी उसका कुछ बिगाड नहीं पा रहे थे। यहाँ तक कि उसके दोनो पुत्र भी उसकी आदतो से परेशान थे। दोनो पुत्र यह सोचकर संतोष कर लेते थे कि अब उनकी उम्र सत्तर साल हो चुकी है। वे अब ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं हैं।


गाँव के लोग भी चाहते थे कि अब पृथ्वी पर उसका कार्यकाल पूरा हो और वह किसी दूसरे गृह का वासी बने। एक रोज उसकी तबीयत बिगडी ओर बिगडती ही चली गई। उसे भी महसूस होने लगा कि अब जिंदगी और मृत्यु के मध्य ज्यादा फासला नहीं हैं। उसने अपने पुत्रो को पास बुलाकर विनती भरे स्वर में कहा कि अब मेरा समय निकट आ गया हैं। लगता हैं कि अपना साथ यहीं तक था। वह दो फिट का डंडा सदैव साथ रखता था। वह पतला सा डंडा उसकी खाट के पास ही पडा था। उसने डंउा उठाया और कहा कि यह डंडा जीवनभर मेरे साथ रहा इसलिए मेरी अतिंम ईच्छा हैं कि मेरे देहांत के बाद मेरा डंडा मेरे मुह में रख दिया जाए। आप लोग मुझे अंतिम स्नान कराने के बाद यह डंडा मेरे मुह मे रख देना। दोनो पुत्रो ने हाँ में गर्दन हिला दी।


उपचार अपना असर दिख ही नहीं रहा था। एक घडी ऐसी आई कि श्वांस रुक गई। दिखावे के लिए तो मातम मनाया गया। उसकी चिता तैयार की गई। उसकी अजीबोगरीब अंतिम इच्छा की पूर्ति की गई। उसके जीवनभर साथ रहा, डंडा उसके मुह में रखकर कफन पहना दिया गया। ऐसी अर्थी पहले किसी ने देखी नहीं थी। डंडा सफेद कपडे को दो फिट ऊँचा किए हुए था। चिता मे लोग राम नाम सत्य की पुनरुक्ति तो कर रहे थे लेकिन मन ही मन सोच रहे थे कि इस दुष्ट से पीछा छूटा। पृथ्वी का भार हल्का हुआ। अब गाँव में सदभाव का वातावरण निर्मित हो सकेगा।


गाँव की पुलिस चौकी मरघट के रास्ते में ही पडती थी। प्रत्येक शव यात्रा को उस पुलिस चौकी के सामने से गुजरना ही होता था और कोई मार्ग मरघट तक जानें का नहीं था। दुष्ट की शव यात्रा पुलिस चौकी के सामने से गुजर रही थी। चौकी के बाहर दो सिपाही आने जाने वाले वाहनो पर नजर रख रहे थे। उन्हे राम नाम सत्य है, का स्वर सुनाई दिया तो दोनो की नजर अर्थी पर पडी। एक सिपाही दूसरे के कान में फुसफुसाया--

‘’ उधर देखो। मॅागीलाल। रहस्यमय अर्थी आ रही है।'’ मॅागीलाल ने गौर से देखा। वह पहले सिपाही के कान मे फुसफुसाया--- ‘’हम रोज, यहाँ नाकाबंदी के दौरान मरघट की ओर जाती हुइ अर्थियों को देखते है। परंतु ऐसी अर्थी पहले कभी देखी नहीं। देखो अर्थी के मुह में वायरलेस जैसा कुछ नजर आ रहा ।'’’


मॅागीलाल बोला -- ‘’ लगता है कि मामला गडबड है। तुम अर्थी को रुकवाओ, मै, चौकी से हवलदारजी को बुलाकर लाता हॅू।'’ उसने अपने साथी के जवाब का इंतजार ही नहीं किया। चैाकी से हवलदार को बुलाने दौड गया।


इधर दूसरे सिपाही ने अर्थी ले जाने वालो को रुकने का इशारा किया तो वे सकते में आ गए। एक दूसरे को इशारो इशारो में पूछ रहे थे कि क्या हुआ। तभी माॅगीलाल, भारीभरकम हवलदार को लेकर अर्थी के पास आया और रोबदार आवाज में बोला--- ‘’ अर्थी को नीचे रखो। हम चेक करेंगें।'’


मृतक के पुत्रो ने इतराज किया लेकिन हवलदार ने उनकी एक नही सुनी। अर्थी को नीचे रखा गया। फिर हवलदार ने आदेश दिया--’’ यह एरियल सा क्या है। खोलकर दिखाओ ।'


‘’ श्रीमान, अर्थी को रास्ते में खोलना धर्म सम्वत नही है। हम आपको मरघट में चल कर दिखा देंगे।'’

‘’ हमारे पिताजी की अंतिम इच्छा थी कि उनका प्रिय डंडा, उन्हे स्नान कराने के बाद उनके मुह में रख दिया जाए।' बडे पुत्र ने सहमते - सहमते स्थिति को स्पष्ट किया ताकि कपडा नहीं हटाना पडे।

लेकिन हवलदार ने आज तक ऐसी अर्थी या अंतिम ईच्छा सुनी देखी नहीं थी इसलिए बडे पुत्र को ऊपर से नीचे तक देखा-- और सख्त लहजे में बोला-- “ पुलिस को बेवकुफ समझ रखा है। कपडा हटाओ। "


अब कपडा हटाना पडा। शव के मुह में दों फिट का डंडा था। हवलदार को शक हेा गया कि मृतक धनी आदमी था इसलिए उसकी संतान और निकट संबंधियो ने संपति के लालच में बुजुर्ग की हत्या की है। वह शव को चौकी के भीतर ले गया और उसने निष्कर्ष निकाला कि गले में डंडा ठॅूसकर हत्या की गई है। उसने निकट परिजनो पर हत्या का और शव यात्रा में शामिल लोगो पर हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का मुकदमा दर्ज करके सब लोगो को हवालात में बंद कर दिया।


जब यह खबर गॅाव में पहुॅची तो गाँव की एक महिला ने कहा कि आज से चार दिन पहले जब रामदेव की तबीयत बिगड गई थी तब वह रामदेव का हालचाल पूछनें उसके घर गई थी। तब रामदेव ने कहा था कि वह लोगो को ऐसे जाल में फॅसाएगा कि उनका, उस जाल से निकलना मुशकिल हो जाएगा। वह सिर पीटकर कहने लगी कि वह जीवन भर लोगो को परेशान करता रहा और मरने के बाद भी परेशान कर गया।


हमने आपको दो लोगो के अंतिम समय की बोध कथाए सुनाई। एक तो वह साधु था जो ताजिदंगी लोगो को हॅसाकर अनंदित करता रहा । दूसरा रामदेव था जो जिंदगी भर लोगो को दुख देता रहा और मरने के बाद भी सुनियोजित योजना के तहत गाँव के मोतबीर लोगो को हत्या के मुकदमें में फॅसा गया। सबकी सोच और लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं। रामदेव पूरी जिंदगी लोगो को परेशान और दुखी करने के ढंग तलाशता रहा। इस नकारात्मक कार्य में उसकी ऊर्जा खर्च होती रही। वह भी परेशान और दुखी रहा। इसलिए यह सत्य हैं कि जिनके जीवन में करुणा, मैत्री, प्रेम और प्रसन्नता का उद्भव होता है तो वे लोगो में इनका वितरण करके स्वयं आनंदित होते हैं। जिसके जेहन में जो होगा, वही तो वह दे सकेगा। साधु के जेहन में प्रसन्नता और आनंद था जो वह अंतिम समय तक लोगो को बाॅटता रहा। रामदेव के जेहन में दुख, विषाद और वैमनस्य था जो वह अंतिम समय तक लोगो को देकर परेशान करता रहा।


हम बात कर रहे थे, भाव शुद्वि की। जब हमारी भावनाएं शुद्व हो जाएगी, तब हमें जीवन के वास्तविक आनंद का बोध होगा। शुद्व भावों के साथ जीवन जीना ही प्रमाणिक जीवन माना गया है। भावों को शुद्व करने का चौथा उपाय हैं- कृतज्ञता। भाव-शुद्वि के लिए मन में कृतज्ञता अर्थात धन्यवाद का भाव उत्पन्न होना सहयोगी है। ओशो, सर्वप्रथम शरीर की महत्ता को रेखाकिंत करते हैं। शरीर ही ऐसा उपकरण हैं, जिसके भीतर आत्मा का निवास हैं। सबसे पहले श्वासं पर ही विचार करे तो हम पाएगें कि यह स्वचालित है। हमें श्वांस लेने और छोडनें का कोई प्रयास नहीं करना पडता हैं। सब कुछ स्वतः हो रहा है। क्या जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृत्य के स्वंमेव संचालन के लिए परमात्मा के प्रति कृतज्ञता--धन्यवाद का भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए? आवश्यक रुप से उत्पन्न होना चाहिए। यदि श्वांस स्वचालित प्रक्रिया न होकर व्यक्ति के कृत्य पर निर्भर होती तो जैसे ही हम किसी काम मे मशरुफ हुए और श्वांस लेना भूल गए तो जीवन लीला की इतिश्री होना अनिवार्य था। कहने का अर्थ यह है कि परमात्मा प्रदत्त स्वचालित श्वांस प्रक्रिया के लिए परमात्मा के प्रति हमारे मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए।

कृतज्ञता का अर्थ होता हैं- किसी के द्रारा किए गए उपकार के प्रति अहसान मानने का भाव। कृतज्ञता, सभ्य समाज में शिष्टाचार के रुप में देखा जाता है। किसी ने हमारी सहायता कि तो उसके प्रति आभार प्रकट करना भी कृतज्ञता हैं। कोई व्यक्ति बार-बार हमे मार्गदर्शन प्रदान कर हमारे कार्यो को सुकर बनाता है तो उस व्यक्ति के प्रति श्रृदा उत्पन्न होना लाजमी है। यह श्रृदा भी कृतज्ञता हैं। मेरा मानना है कि कृतज्ञता से हम अपने आस पास के लोगो और परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील और सकारात्मक बन सकते है। इससे जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण की उत्पत्ति होती है। कृतज्ञता से हमारे भीतर मावनीव गुणो का समावेश होता है। कृतज्ञता वह गुण हैं जो हमारे भीतर किसी के द्वारा की गइ दयालुता को याद कराता हैं और हमसे उस अहसान को वापस करने का आग्रह करता हैं।

यह भी कहा जाता है कि परमात्मा का ध्यान, आकृष्ट करने का अचूक औजार कृतज्ञता हैं। परमात्मा के उपकार, अनुगृह, अनुकंपा को सदैव याद रखने से मन में कृतज्ञता का बीज अंकुरित होने लगता है जो हमारी भावनाओ के शुद्विकरण में योगदान देता हैं। श्री हरपाल अपनी प्रसिद्व पुस्तक -हररोज कृतज्ञता का अभ्यास मे लिखते हैं कि यदि जीवन में कृतज्ञता का भाव समाविष्ट हो जाए तो जीवन में रोजाना छोटे बडे चमत्कार होना प्रारंभ हो जाते है। वे दावा करते हैं कि लगातार अट्ठाईस दिन तक प्रतिदिन दस कृतज्ञता के वाक्य लिखने होगें। साथ ही साथ कृतज्ञता प्रकट करने के कारण भी लिखने होगें। इस चमत्कार को घटित कराने हेतु नकारात्मक चीजो से परहेज करना होगा। यदि हम किसी के प्रति निंदा का भाव सजोये हुए हैं या अभावो का राग अलापते रहते हैं तो यह कृत्य, कृतज्ञता के बीज को अंकुरित होने से रोकते हैं। मात्र लेने की मानसिकता से अडचने पैदा कर दी हैं। हम दुआ भी मॅागते है तो सिर्फ अपने लिए। दूसरो के लिए दुआ मॅागना भी भारी काम लगता है। अलहम्मदुलिल्लाह शब्द प्रत्येक वस्तु, जो हमें मिल रही है उसके लिए अल्लाह के आर्शीवाद को याद दिलाता हैं। यह शब्द अल्लाह पर यकीन और श्रृदा को मजबूत करता है। यह शक्तिशाली शब्द माना गया हैं। इस शब्द के उच्चारण का अर्थ होता हैं कि हम अल्लाह की संप्रभूता और उसकी हमारे जीवन में प्रत्येक पल उपस्थिति स्वीकार करते हैं। अधिकांशतया इस शब्द का प्रयोग अल्लाह का शुक्रिया अदा करने के लिए किया जाता है। संपूर्ण प्रशंसा अल्लाह की है। इस शब्द में संपूर्ण कृतज्ञता का भाव समाविष्ट हो जाता है। इस शब्द का प्रयोग हमारे भावो को शुद्व करने का महत्वपूर्ण उपकरण बन सकता है। शर्त इतनी सी हैं कि इस शब्द का उच्चारण हृदय की गहराइयो से किया जाए।

ओशो ने परमात्मा की अनुकंपा और शरीर के प्रति महाबलेश्वर के शिविर में स्पष्ट किया कि---

‘’ वैज्ञानिको ने अप्रत्यासित विकास किया है। यदि हम बहुत बडे कारखाने खोल दे और उनमें हजारो विशेषज्ञो की नियुक्ति दे तो भी एक रोटी को पचा कर खून बना देना मुश्किल हैं। आपका यह शरीर चमत्कार कर रहा हैं। यह छोटा सा शरीर, थोडी सी हड्डियाँ और थोडा सा माँस। वैज्ञानिक कहते हैं, मुश्किल से चार पाँच रुपये का सामान है, इस शरीर में। इतना बडा चमत्कार फिर भी शरीर के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं। '’


ओशो, हमारे से ही सवाल करते हैं कि क्या आपने कभी अपने शरीर को प्रेम किया? क्या कभी प्रेममय होकर अपने हाथ को चूमा? क्या कभी ख्याल किया कि क्या अदभूत घटित हो रहा है? फिर स्वयं ही जवाब देते हुए कहते हैं कि शायद ही आपमें कोई ऐसा हो, जिसने अपनी आंखो को प्रेम किया हो। क्या किसी ने कृतज्ञता प्रकट की कि ऐसा अद्भुत घटित हो रहा हैं। ओशो ने रहस्य से पर्दा सरकाते हुए बताया कि शरीर में सब कुछ स्वतः हो रहा है और हम शरीर के प्रति कृतज्ञता और प्रेम से भरे हुए नहीं है। उन्होने सुझाव दिया कि हम अपने शरीर के प्रति कृतज्ञ हो जाए। इसका कारण यह बताया गया कि जो सर्वप्रथम अपने शरीर के प्रति कृतज्ञ हो गया तो समझो कि वह दूसरो के प्रति भी कृतज्ञ हो सकता है। जो अपने शरीर के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता .है वह दूसरो के प्रति कैसे कृतज्ञता से लबरेज हो सकता हैं। इस शरीर से प्रेम के झरने निकलते है। यदि हमारा परिचय अपने झरनो से हो गया तो हम दूसरो के प्रति भी प्रेम से भर सकते हैं।


जब भी हम प्रकृति से कुछ लेते है तब हमारे भीतर कृतज्ञता के भाव का उदगम होना चाहिए। प्रकृति निःशुल्क वायु प्रदान करती हैं। बिना वायु के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं। हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं हैं। प्रकृति ने हमें इतनी सौगाते दी हैं कि हम प्रत्येक पल प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और धन्यवाद के भाव से भर जायें तो भी कम हैं। कई सम्प्रदायों में आर्शीवाद देने वाले के प्रति भी धन्यवाद देने के रीवाज है। जो व्यक्ति, हमें आर्शीवाद देते है, उनका मूल भाव हमारे कल्याण की कामना करना होता हैं। अतः आशीर्वाद दाता के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट करना सभी धर्मो का आह्वान है। आप विचार करके देखिए कि जब हम धन्यवाद ज्ञापित करते हैं तब हमारा मन कितना हल्का हो जाता हैं। ओशो ने धन्यवाद के भाव को बहुत अधिक महत्ता प्रदान की है।

 

        कुरआन में कइ बार यह वाक्य आता है'’फाबेअययआलाहे रब्बे कोमा तोकज्जेबान। इस वाक्य का शब्दिक अर्थ होता है कि अल्लाह ने हमें इतने उपहार दिए हैं कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आयत कहती हैं कि अल्लाह की कौन-कौन सी नेमतो से इंकार करोगें। यह प्यारा शब्द सूरह ए रहमान आयत में आता हैं। यदि हम जीवन पर विचार करे तो हमें मालूम हो जाएगा कि करोडो नेमते इंसान को निःशुल्क उपहार के रुप में प्रदान की गई हैं। यह शब्द प्रत्येक इंसान से उम्मीद करता हैं कि वह अल्लाह की नेमतो का शुक्रिया अदा करे। जिस्म में होने वाली पाचन क्रिया स्वचालित हैं। हमें कोई प्रयास नहीं करना पडता है। यह कितनी बडी नेमत है। कई लोग सवेरे 33 बार अपनी अंगुलियो पर इस आयत को पढते है और अल्लाह ने जो कुछ भी दिया हैं उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते है। जो हैं, उसी में अपनी संतुष्टि प्रकट करते है और जो नही है, उसके प्रति शिकायत नहीं करते हैं। इस आयत से अहोभाव की उत्पत्ति होती है और भावनाओं को शुद्व करने में मदद मिलती हैं। यह आयत घोषणा करती है कि अल्लाह ने इंसान को बोलना सिखाया। सूरज और चॉद निर्धारित दायरे में चल रहे है। सितारे और पेड भी अल्लाह के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए झुक रहे है अर्थात वे सिजदा कर रहे हैं। कुरआन भी बार बार अपील करता है कि इन नेमतो के लिए हम जितनी बार अल्लाह का शुक्र करे, उतना ही कम हैं।


ईसाईयत में भी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए प्रार्थना, धन्यवाद और दूसरों की सेवा करने के प्रावधान हैं। ईसाई भी नियमित रुप से प्रार्थना करते हैं और अपने परमेश्वर के उपकारो के लिए धन्यवाद ज्ञापित करते है। वे आनंद के लिए अपने परमेश्वर से आर्शीवाद भी र्मागते हैं। ईसाईयो को सिखाया जाता हैं कि वे हर बात के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दे। चाहे वह बात या कार्य अच्छा हो या बुरा। ईसाई भोजन से पहले या बाद में परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और अपना अहोभाव भी प्रकट करते है। वे परमेश्वर की प्रशंसा करते है। उसके महान कार्यो के लिए आभार प्रकट करते है। उनके आभार प्रकट करने के तरीको में स्तुति संगीत और प्रार्थना का प्रचलन रहा है। कई ईसाई तो ऐसे भी होते हैं जो कृतज्ञता का अभ्यास करने के लिए दैनिक या साप्ताहिक रुप से एक कृतज्ञता पत्रिका रखते है जिसमें वे उन चीजो को लिखते हैं, जिसके प्रति वे आभारी है। कई ईसाईयों का मानना हैं कि प्रभु को धन्यवाद देने का सबसे आसान तरीका प्रभु की स्तुति करना हैं। वे फुरसत के क्षणो में अपने परमेश्वर की स्तुति गायन के माध्यम से करते हैं। उनका मानना है कि गीत के माध्यम से स्तुति सुनने वाले व्यक्ति पर भी अपना असर डालती है। फिलिपियो में तो यह थी कहा गया हैं कि ‘‘किसी बात की चितां मत करो, परंतु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ उपस्थित किए जाए।‘‘

    

दि सिक्रेट के अनुसार संपूर्ण श्रृद्वा से परमात्मा के प्रति प्रकट की गई, कृतज्ञता, ब्रहमाण्ड तक जाती है। कृतज्ञता का प्रकटीकरण यांत्रिक नहीं होना चाहिए। कृतज्ञता एक पावन कर्तव्य की प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति होनी चाहिए। लेखिका रंडा बर्न द सीक्रेट बुक में कहती हैं कि जब हम सच्चे दिल से आभार प्रकट करते है। सच्चे दिल से निकले कृतज्ञता के भावो का चमत्कारिक प्रभाव होता हैं। यह चमत्कार जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं। यदि कोई व्यक्ति इसी समय ठान ले कि उन्हे अपने जीवन को रुपांनतरित करना हैं। तो उसे इमानदारी के साथ अभ्यास करना होता हैं। जो सपने बरसो से सजो रखे है उन्हे साकार करने की प्रबल प्यास पैदा करे। इस अभ्यास का शुभारंभ सिर्फ और सिर्फ कृतज्ञता से ही किया जा सकता हैं। सबसे पहले तो हमें अपने मन की गहराइयों में जाकर विचार करना होागा कि वह कौनसा स्वपन है, जिसे हम साकार होते हुए देखना चाहते हैं। जिसके प्रति धन्यवाद का भाव उठता हैं। उसे बार बार स्मरण करने से भावनाएं प्रबलता की ओर गमन करती है। जो शक्ति, जीवन के जिस अभाव पर क्रेदित थी, वह रुपान्तरित होने लगती है। जिन चीजो का जीवन में अस्तित्व हैं, वे हमारी प्रसन्नता का ग्राफ बढाती हुई प्रतीत होती हैं। वह अब अच्छा महसूस करने लग जाते है। ब्रहमाण्ड की उर्जा भी सहयोग प्रदान करने लगती हैं। जब सुबह नींद खुले तो हम कहे धन्यवाद। द सीक्रेट के सुधि पाठक ऐसे प्रयोग करते है। उन्हे चाहे कैसा भी भोजन दे दो वे परमात्मा को धन्यवाद देना नहीं भूलते हैं। कृतज्ञता ने कई व्यक्तियो के जीवन को रुपानंरित किया है। अभ्यास और यकीन का मामला है।

    

बौद्व धर्म में कृतज्ञता का दायरा ‘‘धन्यवाद‘‘ कहने तक सीमित नहीं है। जीवन के परस्पर संबंधो की गहरी समझ से प्रशंसा के भाव का प्रादुर्भाव होता हैं। बौद्व धर्मावलंबी मानते हैं कि प्रति क्षण, प्रत्येक अनुभव और जीवन के सफर में मिलने वाले व्यक्ति इस अस्तित्व का अंग हैं। इस परस्पर संबंध को स्वीकार करने से जीवन तो सरल होता ही है और कृतज्ञता का भाव गहन होता चला जाता हैं। बौद्व धर्म में कृतज्ञता के अभ्यास में दूसरो द्वारा हमारे प्रति की जाने वाली दयालुता को भी समाहित किया गया है। बौद्व शिक्षाए स्मरण कराती हैं कि हमारे पास जो कुछ भी हैं उसमें दूसरो की दयालुता एवंम उनके प्रयास का भी योगदान हैं। दूसरो की उदारत एवंम प्रयास प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हो सकते हैं। यह अहसास व्यक्तिगत लाभ की परिधि से निकलकर प्रशंसा के भाव को गहन करता है। इस भाव से परस्पर निर्भरता की महत्ता समझ में आने लगती हैं। बौद्व कहते है कि सभी प्राणियों को परस्पर जुडे रहना चाहिए। इनके धर्म गुरु सभी प्राणियों, पारिवारिक सदस्य, औ यहॉ तक कि विरोधियो ंके प्रति दयालुता और परस्पर करुणा भाव से जोडता हैं। उनका मानना हैं कि जब हम पारस्परिक दयालुता और जुडाव पर गहन चिंतन करते हैं तो स्वाभाविक रुप से हमारे ह्रदय कृतज्ञता के फूल खिलने लगते हैं। सारांश के रुप में यह कहा जा सकता हैं कि धन्यवाद ज्ञापित करना, दयालुता और उदारता से जीवन में शांति और आनंद का झरना बहना प्रारंभ हो जाता है।

बौद्व कृतज्ञता को प्रकट करने के लिए तरीके अपनाते है। वे भोजन करने से पूर्व भोजन के प्रति एकाग्रचित होने का प्रयास करते है। अपनी आती-जाती सॉसों के प्रति सजग रहने लग जाते है कि सॉस आई और सॉस गई। उसे अनुभव करने की प्रक्रिया आरंभ करते है। फिर वे सभी प्राणियों की पारस्परित निर्भरता पर चिंतन करते हैं। चूॅकि अब भोजन करना प्रारंभ कर रहे है इसलिए उन परिस्थितियों को धन्यवाद ज्ञापित करते है जिन परिस्थितियों के कारण वे सुकून से भोजन कर पा रहे हैं। बौद्व भिक्षु, वर्तमान में जीना पसंद करते है इसलिए वे वर्तमान क्षण को बहुत पवित्र मानते हैं। धन्यवाद ज्ञापित करते समय स्वयं को वर्तमान क्षण में डुबोने का प्रयास करते है। भोजन के प्रत्येक निवाले पर पर ध्यान केंिद्रत करते हुए उसे परमात्मा के प्रसाद की भॉति धन्यवाद के भाव के साथ गृहण करते हैं। जिस दिन धन्यवाद-दिवस मनाया जाता हैं, उस दिन लोगो को वस्तुओ के दान के अलावा समय का दान देने का भी प्रयास करते हैं।उस दिन वें सभी प्राणियों के प्रति प्रेमपूर्ण, दया का भाव विकसित करते हैं। वे दूसरे के जीवन के साथ कृतज्ञतापूर्ण ठंग से स्वयं को उनके साथ जोडने का प्रयास करते है।


जैन समाज में कृतज्ञता को लेकर एक कहानी कई बार कही और सुनी जाती है। दो भाई थे-जिनेश और दिनेश। एक भाई भूतल पर तो दूसरा भाई प्रथम तल पर पत्नी और बच्चो के साथ निवास करता था। माता-पिता जीवित थे। वे कभी जिनेश के साथ तो कभी दिनेश के साथ भोजन कर लिया करते थे। एक दिन पिता का देहांत हो गया और मॉ अकेली रह गई। छोटे भाई के बच्चे छोटे थे। इसएि मॉ, ज्यादातर भूतल पर निवास करने वाले अपने छोटे पुत्र के पास ही रहने लगी। दोनो भाईयो ने विचार किया कि मॉ के हाथ में कुछ पैसा होना चाहिए ताकि वह कुछ लेना चाहे या किसी को देना चाहे तो उसे मुैह न ताकना पडे। अतः दोनो भईयो ने माता को दो-दो हजार रुपए मासिक देना तय किया। फिर वे मासिक खर्चे का भुगतान करनें लगे।एक दिन बडे भाई को लेटे-लेटे विचार आया कि जिस मॉ ने उनकी सभी ईच्छाई की पूर्ति में ऐडी चोटी को जोर लगा दिया था, उस मॉ को वृद्वा अवस्था में वेतन के रुप में मात्र दो-दो हजार रुपए देना उचित प्रतीत नहीं होता है। यह तो कोई कृतज्ञता नही हुई। उसी समय वह उठा। अलमारी में से बिना गिने नोटो की गडिडया थैले में डालकर मॉ के पास भूतल पर आया। मॉ के चरणो में रुपयो का थैला और अपना सिर रखकर बोला- ‘‘ भूल क्षमा करे। जितना दान करना हो करें। जिसे जो देना हो दे दे। अलमारी की चाबी उपर ही रखी रहती हैं। आपको किसी को पूछनें की जरुरत नहीं है। आप अलमारी से स्वंय निकाल लेना। मैं आपके उपकारो का बदला चुकाने मे तो मैं, असमर्थ हूॅ। जब कमाने की कोई सीमा नहीं तो तुम्हे देने की सीमा क्यों रखु।‘‘

इसके बाद मॉ की पेटी खाली नहीं रह पाई। मॉ आनंद और संतोष से भर गई। उसने उस धन को सहेज कर रखा। उनका अंतिम समय आया और वह स्वर्गवासी हो गई। पूर्वजो को सामान और साधन दे देना ही पर्याप्त नहीं हैं। उन्हे आदर, सम्मान और समय देना भी निहायत जरुरी हैं। जो छोटे से उपकार के प्रति भी अहोभाव नहीं रखता हो, कृतज्ञता नहीं रखता हो, वह ह्रदय नही पत्थर ही कहा जाएगा। लोकिक दृष्टि से विचार करे तो पिता धर का मस्तक है और मॉ, ह्रदय। इनके प्रति जितनी कृतज्ञता प्रकट की जाए उतनी ही कम हैं।


 
 
 

2件のコメント


asha jain
asha jain
5月13日

Nice Thoughts...

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Puneet Kumar Gupta
Puneet Kumar Gupta
5月06日

यह सच है....ओशो के विचारों की खूबसूरती उनकी निर्मलता, स्पष्टता और आंतरिक सच्चाई में थी—वे न तो सामाजिक दिखावे के पक्ष में थे और न ही किसी कठोर नियम के। उनका संदेश सदा यही रहा: "स्वतंत्रता, प्रेम और ध्यान – यही मुक्ति का मार्ग है।"

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