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हमारे विचारो का शुद्धिकरण कैसे करे (भाग : 1, ब्लॉग : 1)

  • Writer: Ayub Khan
    Ayub Khan
  • May 6
  • 5 min read

Updated: May 14

दिनांक : 06.05.2025

अब हम विचार शुद्वि पर चर्चा करते है। भाव-शुद्वि की चर्चा पर हमने कहा था कि जो भाव दूसरो के कृत्यों की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होते है। वे भाव अशुद्व होते हैं। विचारो और भावो में समानताए है। इनके मध्य बारीक अंतर भी हैं। लगभग प्रत्येक मनुष्य के दिमाग में हर समय विचारो का रैला चलता रहता है। यह रैला जागृत अवस्था में तो चलता ही है परंतु नींद में भी यह रैला, हमारा पीछा नहीं छोडता है। हम औफिस में बैठे काम कर रहे है और हमारा ध्यान क्रिकेट मैच में लगा हुआ है। हम भोजन कर रहे होते है और हमारा ध्यान खेतो-खलियानो में भटकता रहता है। कई बार तो दिमाग में ऐस विचार आते है जिसे हम किसी निकट संबंधी को भी नहीं बता सकते है। विचार पर विचार दिमाग मे तैरते रहते है। एक विचार आता है, उसे हम पूरा समझ ही नहीं पाते हैं कि दो दूसरे विचार आकर पहले वाले विचारो का स्थान गृहण कर लेते हैं। विचारो के कोलाहल से चिंता और विषाद उत्पन्न होता है। जीवन में नकारात्मकता अपने पैर पसारने लगती हैं। इन विचारो से मुक्ति पाने के उपाय भी ओशो ने बताए है। उनका कहना हैं कि भावो की भॉति विचारो का भी शुद्धिकरण किया जा सकता है। यह शुद्धिकरण मात्र संकंल्प करने से नही होगा बल्कि इसके लिए निरंतर अभ्यास किया जाना अपेक्षित हैं। मनोवैज्ञानिको ने भी ओशो द्वारा प्रतिपादित विचार शुद्वि की प्रक्रिया को पूर्णत सही माना है। जो विधिया ओशो ने साठ साल पहले इजाद की थी। उन विधियो पर दुनियाभर के वैज्ञानिको ने बरसो शोध किया और उन विधियो के सत्य होने की मुहर लगा दी हैं। अर्थात, ओशो द्वारा बताई गई विधिया अन्तराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार की जाकर प्रयुक्त होने लग गई है।



ओशो से सन्यस्त उनके छोटे भाई स्वामी शेलेन्द्र जी ने कहा कि जिस प्रकार विष अपना प्रभाव शरीर पर डालता है उसी प्रकार सत्यम, शिवम और सुंदरम के भाव मस्तिष्क व हृदय को प्रभावित करते है। वे एक उदाहरण देते हैं कि यदि हम किसी होटल में भोजन करने जाए और हमें वहॉ मक्खिया और कोकरुज दिखाई दे तो हम वहॉ भोजन करना पसंद नहीं करेंगें। हमें फुड पोइजनिंग का भय सताने लग जाएगा। उन्होने विचारो को भी भोजन के समकक्ष माना है। जो वस्तु बाहर से भीतर जाती है, वह आहार है। भोजन भी बाहर से भीतर जा रहा है। विचार और सूचनाए भी बाहर से भीतर जाती है। अतः वे भी आहार के समकक्ष हैं। विचारो की गृहणता से पहले चुनाव करना चाहिए कि यह विचार गृहण किए जाने योग्य है या नही? दुनिया में घटित हो रहे अपराधो और षडयंत्रो को सुनना और पढना अनावश्यक हैं। हमें अपराधी बनना नही है। हमें षडयंत्र करना नही है क्योकि यह सभी मार्ग दुख की मंजिल पर ले जाते हैं। राजनीति पर भी हद से ज्यादा सूचनाए एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं हैं। हमें राजनीति में जाना नहीं और राजनैतिज्ञ हमारी सलाह मानने वाले भी नहीं है। फिर क्यों इन सूचनाओं और घटनाओ केा दिमाग में प्रविष्ट कराए। क्या औचित्य है?


महिलाए तो एक कदम आगे है। मोबाइल अकारण अनर्गल वार्तालाप करती ही चली जाती है। उनका वार्तालाप द्रोपदी के चीर की तरह बढता ही चला जाता हैं। सिर्फ काम की बात करने का तो औचित्य समझ में आता है लेकिन बेकाम की अनर्गल टीका टिप्पणियो को हम रस ले लेकर सुनते है तो यह अनर्गल टीका टिप्पणिया हमारे दिमाग के एक कोने में सेव हो जाती है। जो विचार भीतर चल रहे होते है वे ही वाणी के माध्यम से प्रकट होते है। हमारे भीतर क्या चल रहा है? क्यो चल रहा है? इसको जॉचने परखने की जरुरत हैं। हमे इन विचारो की उपयोगिता और वौछनियता पर मंथन करना होगा। जैसे भोजन करने से पूर्व हम निर्णय लेते हैं कि क्या खाना हैं और क्या नहीं खाना हैं? उसी प्रकार विचारो के बारे में भी निर्णय करना होगा कि किस प्रकार के विचारा आहार योग्य है और कौनसे विचार आहार योग्य नही है। कोई अशुभ विचार दिमाग में गहरा बैठ सकता हैं। अतः सतर्क रहना होगा। कई बार ऐसे विचारो का सतत स्मरण करने से वे सत्य भी हो सकते हैं। भगवान बुद्व ने तो अपने आरम्भिक काल में चेता दिया था कि विचार ही आगे चलकर वस्तु में परिवर्तित हो जाते है। आज जो हम विचार कर रहे है दिमाग उसके क्रियान्वन में जुट जाता हैं। ऐसे विचार आते ही सतर्क और सावधान होना पडेगा। विचारो की दिशा परिवर्तित करनी होगी। विचार का रुख सत्यम, शिवम सुदंरम की ओर करना बेहतर होगा। असत्य, अशुभ और असौदंर्य के प्रति विचार करना घातक हैं। ऐसे विचार उस मार्ग पर ले जाने होगे जो प्रगति और जीवन को सुखमय बनाते हो। हम जिस समाज मे पले बढे है, वहॉ नकारात्मक विचार स्वंय आ गए। सकारात्मक और शुभ विचार, बिना बुलाए आने वाले नहीं हैं। शुभ विचारो को तो विधिवत आंमत्रित करना होगा अन्यथा शुभ विचारो का आगमन नही हो सकेगा। परंतु हम इस दिशा में जागृत नही है। अवेयर नहीं है। कब अशुभ विचार एक आक्रांता की भांति हमारे भीतर घुस जाते है, हम पता हीं नहीं चलता। हमें सजग रहना होगा। यह परिस्थिति स्वंमेव घटित होनें वाली नहीं है क्योंकि सामाजिक संस्कारों की जंजीरो में जकडे हुए हम अशुतापूर्ण माहौल में रहे है। अतः जो विचार सत्यम, शिवम, सुदंरम की ओर ले जाए उन मार्गो का चुनाव करना पडेगा। उस राजपथ पर चलना होगा। ओशो ने कहा हैं कि अशुभ और अशुद्व विचारो से लडना नहीं है। लडाई किसी समस्या का स्थाई हल नहीं है। लडाई से कभी ने विजय पताका नहीं फहराई। लडाई से तो पराजय ही मिलती हैं।


विचारो की शुद्वि के अभियान में सर्वप्रथम सत्यम, शिवंम, सुदंरम से ओतप्रोत विचारो के लिए मन मस्तिष्क में स्थान आरक्षित करना होगा। अशुद्व और अशुभ विचारो के लिए जब स्थान ही रिक्त नहीं होगा तो वह निवास कैसे करेंगें। जैसे किसी मेहमान को तरजीह देना बंद कर दिया जाए तो वह ज्यादा दिन रुक नहीं पाएगा। वह जान लेगा कि मेजबान हमें विदा करना वाहता हैं। उसी तरह हम सकारात्मक साहित्य का अध्ययन करे तो सकारात्मकता के बीज अवश्य ही भीतर जाएगे। उन बीजो को निरंतर सत्य, शुभ और सकारात्मक माहौल में रखा जाए तो वे बीज उसी माहौल के मुताबिक विकसित होकर पौधो का रुप ले लेंगे। जीवन महत्वपूर्ण है। इस जीवन को कचरा कूडा इकट्ठा करने मे लगा दिया तो जीवन में बदबू के सिवाय ओर कुछ हासिल नहीं होगा। चुनाव हमे ही करना होगा कि जीवन के कीमती समय को किन विचारो को एकत्रित करने में खर्च करे। ओशो कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे घर में कचरा डाल जाए तो तुम दो दो हाथ करने को तैयार हो जाते हो। उसे किसी भी सूरत में कचरा नही डालने दोगे लेकिन कोई व्यक्ति व्यर्थ की अनर्गल वार्ता करके समय खराब करता है अर्थात हमारे दिमाग मे कूडा कचरा डालता है तो सजग रहना होगा। उन व्यर्थ विचारो को मस्तिष्क में स्थान नहीं देना है। वरना अशुद्व विचारों का दिमाग में बहुमत हो जाएगा और अपने दैनिक कार्यो को करने मे भी असुविधा अनुभव करेगें। यदि हम मनोवैज्ञानिको से पूछे कि निंदा, चुगली, वैमनस्य और द्वेष का जीवन को किस प्रकार प्रभावित करते है तो वे आपको बजाएंगे कि अभी तक का जीवन मात्र, इनके अलावा ओर किसी भाव से प्रभावित ही नहीं हुआ हैं। विचारो की इस श्रृखला ने मानव की एकाग्रचित्ता और आनंद को बंधक बना लिया है। ऐसे अशुभ विचारो के कारण हम पिंजरे में बंद तोते की तरह हो गए हैं। जिसे यदि पिंजरे के बाहर निकालना भी चाहे तो वह अपने पंजो से पिंजरे के तारो को मजबूती से पकड लेगा। इतने बरसो कैदी का जीवन जीने के बाद वह मुक्त गगन में पंख फैलाकर विचरण करने की ईच्छा को ही भूल गया हैं।




 
 
 

2 Comments


Zakir Khan
Zakir Khan
4 days ago

So helpful

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asha jain
asha jain
May 13

🙏

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नमस्ते, मैं अय्यूब आनंद
आपका स्वागत करना मेरे लिए प्रसन्नता की बात है।

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