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ओशो हमारे विवेक को जागृत करते है। (भाग : 2, ब्लॉग : 2)

  • Writer: Ayub Khan
    Ayub Khan
  • May 4
  • 18 min read

Updated: May 9

दिनांक : 04.05.2025

हमारें पिछले ब्लॅाग में आपने पढा कि हमारी अधिंकाश भावनाए दूसरे लोगो के कृत्यों अैार वार्तालाप की प्रतिक्रियाए हैं। भावनाए हमारे अनुरुप कैसे संचालित हो, उसके लिए साधना आवश्यक हैं।


 

भावनाअेा को शुद्व करने का पहला सोपान है - "अेाशो की मैत्री"

     भाव कब अशुद्व होते है? ओशो के अनुसार भाव, तब अशुद्व होते है जब मैत्री, घृणा में, करुणा क्रूरता में, प्रफुल्लता संताप में और कृतज्ञता अकृतज्ञता में परिवर्तित हो जाए। इसलिए भावो की शुद्वि हेतु साघना करनी होगी। ओशो ने इस साधना के लिए चार भाव सुझाए हैं- मैत्री, करुणा, प्रफुल्लता और कृतज्ञता। 

         

सर्वप्रथम मैत्री पर विचार करते है। ओशो ने मेत्री को मित्रता के समकक्ष न मानकर इसे उच्च स्थान दिया हैं। मैत्री की गहराई में जाते हुए ओशेा ने कहा कि हमें वस्तुओ और चीजो के रुप में ही बाहरी जगत नजर आता है। भीतरी जगत, संवेदनाओ से मनुष्य को घेरे हुए हैं। इसके लिए हमे संपूर्ण जगत के प्रति भीतर मैत्री का भाव उत्पन्न करना होगा। हमें अपने चित्त में यह बात बैठानी होगी कि मेरा किसी भी व्यक्ति, पशु, पक्षी, पेड पौधो से वैर नहीं है। मेरी संपूर्ण जगत के प्रति मैत्री हैं। हमारे चित्त में जितनी घृणा और ईर्ष्या की भावना होगी, उतना ही हमारा चित्त अंशात और उद्वीग्न होगा। चित्त की शांति के लिए मैत्री की साधना प्रथम सौपान है। मैत्री की साधना इतनी सरल है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी सरल साधना से मनुष्य हजारो सालो से वचिंत रहा। ओशो ने प्रथम बार भाव शुद्वि का प्रथम द्वार मैत्री को घोषित कर मानव के चित्त को अंशाति के भंवर से निकालने का प्रयास कियां। ओशो कहते है कि मैत्री की साधना से सरल कोई साधना नही है। हम दैनिक दिनचर्या का कोई भी कार्य कर रहें हो या एकांत में बैठे हो तो अनुभव करे कि मेरे चारो तरफ एक मैत्री का घेरा निर्मित हो रहा है। पूरी कायनात मेरे साथ मैत्री से लबालब भरी हुई हैं। मेरे भीतर भी संपूर्ण कायनात के प्रति मैत्री के फूल खिल रहे हैं। मुझे मैत्री के फूलो की खुशबू आनंदित कर रही हैं। इस खुशबु से मेरे भीतर शांति की लहर दौडने लगी हैं। ऐसी प्यारी कल्पना से मैत्री के बीज हमारे भीतर अंकुरित होना आरंभ हो जाएगे। जो कुछ भी नजर आए। उसके प्रति भाव करे कि मै उसके प्रति मैत्री से सरोबार हूॅ। मैत्री से भरा हुआ हूॅ। लोगो से मिले तो अनुभव करे कि आपका उनके प्रति मैत्री भाव दिन दूना रात चौगुना बढने लगा है। इसका परिणाम यह होगा कि आपका चित्त मैत्री के अनुपात में शांत होना आरंभ हो जाएगा । आपके भीतर प्रेम की कौपले फूटने लगेगी। आप प्रेम जगत में मात्र कल्पना करने से ही विचरण करने लगेगे। जो अकेलापन काटने को दौडता था। वही अकेलापन, एकांत में रुपानतरित्र होकर आनंद और शांति का प्रतीक बनता बन जाएगा।

           

जब मेरे हाथ मैत्री की कीमिया लगी तो मैने इसकी सत्यता को परखने के लिए प्रयोगो का शुभारंभ कर दिया। ओशो द्वारा इजाद की गई कीमिया नूतन और मौलिक थी इसलिए सुसंगत दृष्टांत किसी भी शास्त्र में नही मिले। बिना किसी पूर्व दृष्टांत के प्रयोग आरंभ करने पडे। मुझे सडक पर कोई कुत्ता भी नजर आता तो मै उसके प्रति भी मैत्रीपूर्ण होकर देखता तो मुझे ऐसा प्रतीत होता कि कुत्ता भी मैत्रीभाव को मेरी तरफ प्रवाहित कर रहा है। बाजार और गली मोहल्लो से पैदल गुजरते हुए जिन कुत्तो से भूत जैसा भय लगता था। वह भय धीरे-धीरे तिरोहित होने लगा। मै प्रत्येक आवारा कुत्ते के प्रति मैत्री भाव से देखता और ह्रदय में उनके प्रति मैत्री भाव प्रवाहित करता तो न तो कुत्ते मेरी तरफ भौकते और ना ही मुझे डराने का प्रयास करते। मै उनके प्रति मैत्रीपूर्ण हुआ और वे मेरे प्रति मैत्रीपूर्ण हो चले गए। अब मुझे किसी भी गली मोहल्ले से पैदल गुजरते हुए भय लगना समाप्त हो चुका था। जीवन में पहली बार शांति का अविर्भाव हुआ तो मैान, पंख पसारने लगा। अकेलापन खलता नही था बल्कि आनंद की अनुभूति कराता था। लेकिन परिजनो और हितेषियो के लिए मौन, अनुभव का विषय नही था। इसलिए उन्होने मुझ पर ’प्रश्नो की बौछार करना शुरु कर दिया। कोई मुझसे पूछता कि मै इतना उदास क्यो रहता हूॅ? कोई मुझसे पूछता कि तुम लोगो के कटु वचनो पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते हो? कोई कहता कि तुम इतने धीमे क्यों बोलते हो? कोई कहता कि तुम्हारी चंचलता कहॉ खो गई। किसी हितेषी का प्रश्न होता कि क्या मैं सन्यस्त होने की दिशा में आगे बढ रहा हूॅ? आसपास के लोग को मेरे चित्त की शांति, उदासी का पर्याय लग रही थी। मै न तो किसी को अपना स्पष्टीकरण दे रहा था और ना ही उनसे कोई प्रतिप्रश्न कर रहा था। हॉ, इतना जरुर था कि जो हितेषी, चित्त की शांति के प्रति उत्सुक होता और मौन का स्वाद चखने की आकांक्षा करता, उसे मै मैत्रीपूर्ण होने के सूत्र अवश्य समझा देता था। कई बार तो शुभचिंतका ने यहॉ तक कह दिया कि मै उनसे अलौकिक सूत्रो के बारें में काल्पनिक बाते कर रहा हूॅ। जिन्हे कभी शांति की झलक मिलती, उनके परिजन यह जानने की कोशिश जरुर करते कि उनके पुत्र में यह परिवर्तन कैसे हुआ? वे अपनी संतानो से कई प्रकार के प्रश्न भी पूछते लेकिन वे संतोषजनक जवााब देने की स्थिति में नहीं होते थें।

           

शायद 1984 का साल था। मेरी आयु अब बीस वर्ष हो रही थी। कई मित्रो ने पूछा कि तुम प्रत्येक कार्य को पूरे मनोयोग और आनंद से संपादित करने की बात कहते हो। हम ऐसा करते भी हैं। हमें, अब कुछ-कुछ अच्छा लगने लगा है लेकिन हमारे परिजन नाराज हैं। उनका कहना है कि हम लोग उदास और निष्क्रिय होते जा रहे है। क्या जवाब देवे? हमें पूछते है कि तुम्हे कोई षडयंत्र के जाल में तो नही फंसा रहा है?

फिर मैने मित्र से पूछा-‘‘तुमने क्या जवाब दिया?‘‘

        ‘‘ हमने तो तुम्हारा नाम बता दिया। हमने कहा कि तुम हमें मन की शांति का पाठ पढा रहें हो। चीजो को देखने का नया अंदाज सिखा रहे हो। अब हम परिजनो को समझााने का प्रयास कर रहे है कि जब हम प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, पेड पौधो और पशु पक्षियो को मैत्रीपूर्ण दृष्टि से देखते है अैार मन मे भाव करते है कि हमारा किसी के साथ कोई बैर नही है। हमारी सब के साथ मैत्री हैं। मेरे ताउजी के मन में कइ आंशकाए पैदा हो रही है। वे हमसे मैत्री पर कइ सवाल पूछते है लेकिन हम उनके सवालो का जवाब देने में सक्षम नहीं हैं। मेरे पिता और ताउजी तुमसे मिलना चाहते है। मैत्री अैार चित्त की शांति पर विचारविमर्श करना चाहते हैं।‘‘

     ‘‘ठीक है। कल रविवार है। कॉलेज की छुटटी है। मै ही तुम्हारे घर आ जाता हूॅ। ‘‘

          ‘‘ शाम को पॉच बजे आ जाना। ‘‘ मित्र ने समय नियत कर दिया।

        

मैंने उस रात ओशो का एक प्रवचन सुना। प्रवचन में ओशो किसी विषय को एक बोधकथा के माध्यम से समझाने का प्रयास कर रहे थे। ओशाे, अपनी अमृत वाणी में कह रहे थे कि एक राहगीर छोटी सी पहाडी को देखने गया। राहगीर, जिज्ञासु प्रवृति का व्यक्ति था। उसने देखा कि उस छोटी सी पहाडी के समीप ही किसी मंदिर के निर्माण का कार्य चल रहा हैं। पहाडी पर कई मजदूर पत्थर तोड रहे थे। उस राहगीर ने पत्थर तोड रहे एक मजदूर से पूछा-

        ‘‘ क्या कर रहे हो, मेरे मित्र?‘‘

       ‘‘ दिख नहीं रहा क्या, पत्थर तोड रहा हूॅ। एक तो कठोर पत्थर और उपर से यह धूप, कोढ में खाज का काम कर रही हैं। भुगत रहे है, पिछले जन्मो के कर्मो का फल।‘‘

        ‘‘ नाराज क्यों हो रहे हो मित्र। मैने तो यू ही पूछ लिया था। ‘‘

        ‘‘ साफ दिख रहा था कि कडी धूप मे पत्थर तोड रहा हूॅ। फिर भी पूछ रहे हो। लगता हैं, ऑखों की रोशनी कमजोर हो गई हैं।‘‘

        

 राहगीर उसकी पीडा को सुनकर आगे चल पडा। पहाडी के उपर चढा तो दूसरा व्यक्ति पत्थर तोडता हुआ दिखाई दिया। उसने रुककर, उससे विनम्र शब्दो में पूछा-‘‘ क्या कर रहे हो मित्र।

    

‘‘ पास में ही मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा हैं। उसके लिए पत्थर तोड रहा हूॅ।‘‘ उसने निराशात्मक लहजे में जवाब दिया। राहगीर और आगे बढा तो उसने देखा कि एक व्यक्ति पत्थर तोडता हुआ कोई लोकगीत गुनगुना रहा है। देखने में थका हुआ भी नजर नहीं आ रहा हैं। हथोडे की चोट पत्थर पर मारकर परिणाम की प्रतीक्षा भी कर रहा हैं। किसी भी दृष्टिकोण से परेशान नजर नहीं आ रहा था। राहगीर ने मुस्कुराकर पूछा-‘‘ क्या कर रहे हो मित्र।

         

‘‘ इस गॉव में भगवान का पहला मंदिर बन रहा हैं। उसी मंदिर के लिए पत्थर तराश रहा हूॅ। मेरे हाथ का तराशा हुआ पत्थर भगवान के मंदिर के निर्माण में सहयोगी होगा।‘‘ वह अपने अधूरे लोकगीत को पूरा करने में लग गया।

        

‘‘ इस कडी धूप में परेशानी तो हो रही होगी, मित्र। ‘‘ उसने मानवता के नाते पूछ लिया।

‘‘ कौनसी परेशानी, मेरे मित्र। बरसो से इस पहाडी के पत्थर तोडकर परिवार की गुजर बसर कर रहें हैं। इन पत्थरो से ही तो मेरा परिवार पलता हैं। अब तो इन पत्थरो से भगवान का मंदिर बन रहा है। जब मंदिर पूर्ण हो जाएगा । फिर, पूजा अर्चना शुरु हो जाएगी, तब मैं आनंदित होउगॉ कि मेरे तराशे हुए पत्थरो से मंदिर की बुनियाद रखी गई थी। मेरे तोडे हुए पत्थर इस पवित्र मंदिर में लगे हुए है।‘‘ बोलते बोलते उसकी खुशी परवान चढने लगी।

         

राहगीर आश्चर्यचकित हुआ। उसने कभी ख्याल नहीं किया था कि तीन व्यक्ति, भरी दोपहर में पहाडी से पत्थर तोड रहे हैं। लेकिन तीनो की स्थिति नितांत भिन्न हैं। पहला तो इतना दुखी हैं कि पूछने वाले को अंधा बताकर, अपनें कार्यो का पिछले जन्मो के कर्मो से संबंध स्थापित कर रहा है। दूसरा भी दुखी है। लेकिन उसके दुख की मात्रा थेाडी कम हैं। तीसरे को न धूप से परेशानी है न पत्थर तोडने सें। वह कार्य को पूजा समझकर कर रहा है। उसे कोइ गिला शिकवा नहीं है। पूरा मामला भावना अैार सोचने के ढंग पर आधारित हैं।

 

राहगीर सामान्य व्यक्ति नहीं था। पहुॅचा हुआ संत था। तीनो मजदूरो के भावो का गंभीरतापूवर्क अध्ययन कर रहा था। तीनो व्यक्तियों के भावो के मध्य उत्पन्न हुए फर्क को समझने की कोशिश कर रहा था। उसने यही निष्कर्ष यही निकला कि जो लोग कार्य को ही ध्यान बनाकर उससे आनंदित होते है तो गिले शिकवो की उत्पति ही नहीं होती। तीसरे व्यक्ति की पत्थरो से मैत्री स्थापित हो गई। हमें खुद को ही खोज करनी होगी कि हम वैमनस्य से प्रभावित होते है या मैत्री से। यदि हमारा जीवन वैमनस्यता और घृणा से अधिक प्रभावित होता हैं तो हमें समझ लेना चाहिए कि जीवन दुख के मार्ग पर जा रहा है। यह सही है कि वेमनस्यता और शत्रुता में अपार शक्ति होती हैं। ओशो तो स्पष्ट कहते हैं कि जब सच्ची या झूठी, शत्रुता को आमजन के मस्तिष्क में बैठा दिया जाए, तो आमजन स्वयं को शक्तिशाली समझने की गलतफहमी पाल लेगा। बार-बार, पडौसी देश के हमले की आशंका का बीज आमजन के जहन में अंकुरित कराने का प्रयास ही आमजन में पडोसी देश के प्रति घृणा और वैमनस्यता पैदा कर देगा। इस प्रकार शत्रुता के भाव में शक्ति तो है लेकिन मैत्री भाव में उससे कई गुना अधिक शक्ति है। मैत्री भाव का अभ्यास नही है इसलिए इस भाव की शक्ति के प्रति अज्ञानता है। शांतिकाल में देश शिथिल हो जाता है और युद्वकाल में लोगो में शक्ति का प्रादुर्भाव होने लगता है। हमने शांतिकाल का सदुपयोग करना नहीं सीखा। वरना शांतिकाल में तो शक्ति का संचार होना चाहिए।

         

ओशो ने महाबलेश्वर के शिविर में कहा था कि जर्मनी और जापान की संपूर्ण शक्ति की आधारशीला ही वेमनस्यता रही है।

           

खैर। मै वायदे के मुताबिक ठीक पॉच बजे मेरे मित्र के घर पहुॅचा। मित्र के ताउजी ने हिकारत भरी दृष्टि से मुझे उपर से नीचे तक देखा जैसे कि मैं चिडियाघर से भागा हुआ कोई जन्तु हूॅ। मेरे मित्र ने अपने पिता और ताउ से मेरा परिचय करवाया। मेरी आयु उस वक्त बीस वर्ष हुई ही थी। मताधिकार का हक नहीं मिला था। औपचारिक बातो के बाद वे विषयवस्तु पर केद्रिंत हुए। अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। वार्तालाप में ज्यादातर अंग्रेजी के शब्दो का इस्तेमाल करने के अभ्यस्त थे। उन्होने पूछा- ‘‘तुम, मैत्री भाव कहॉ से ले आए। मालूम है यदि कोई पर्सन, यूनिवर्सल के प्रति मैत्रीपूर्ण हो जाएगा तो करने को बचेगा ही क्या?

        

‘‘ सर। मानव अंशांत और उद्वीग्न है। बैचेन हैं। मैत्री से बेचैनी और उद्वीग्नता का ग्राफ नीचे आ सकता हैं। जीवन रस, चेहरे से झलकने लगता है। जो चेहरे मुरझाए हुए है वे आभायुक्त हो सकते है। हम---‘‘ उन्होने, मुझे बीच में ही अपनी वाणी पर ब्रेक लगाने के लिए विवश कर दिया।

         

वे झल्लाकर बोले-‘‘मैने सिर्फ यह पूछा था कि यदि हम पूरे यूनिवर्सल के प्रति मैत्रीपूर्ण हो जाएगे तो हमारे पास करने को क्या बचेगा। स्टेट लेवल के एग्जाम में कंपिटिशन होता है सैंकडो कमपिटिटर को पीछे धकेल कर आगे निकलने पर ही कामयाबी मिलती हैं। लेकिन तुम्हारी मैत्री की थ्योरी से तो सब कुछ चौपट हो जाएगा। चले है, प्रिमेच्योर बच्चो का ब्रेन वाश करने। यह थ्योरी कमपिटिशन की दुश्मन साबित होगी। दुश्मन।‘‘ वे आखिरी शब्द बोलते-बोलते हॉफने लगे। मेरी तरफ यूॅ देखने लगे कि अब इसकी जुबान पर ताला लग जाएगा। मुझे, अपने नजर के चश्में के नीचे से घूरने लगे। आयु का अंतराल था। मोहल्ले के रहने वाले थे। बडे होने के नाते मेरे मन में उनके प्रति आदर भाव था। अंग्रेजी के प्राध्यापक थे इसलिए मुझे लगता था कि उन्होने काफी-कुछ पढा होगा। मेरी धारणा उनके उपरोक्त विचारो को सुनकर खंडित हो चुकी थी। फिर भी मैने अपने शब्दकोष के सम्मानजनक शब्दो को चयनित कर उनसे निवेदन किया-

        

‘‘आप दूसरे को हराकर विजय पताका फहराने का विचार अपने विधार्थियों के अवचेतन में बैठा रहे है। इससे आपके विधार्थी हिसंक तो हो सकते है लेकिन शांत और करुणावान नही हो सकेगें। उनको अपनी परफोरमेंस को बेहतर करने की उतनी फिक्र नही है जितनी दूसरो को चारो खाने चित्त करने की। मैत्रीपूर्ण भाव से उनके अवचेतन में एक ही बिंदू रहेगा कि कैसे वह अपनी क्षमता की ग्रंथियो को एकजुट करके बेस्ट परफोरमेंस दे सके। बिना मैत्री का केंद्र जागृत किए, ऐसा करना मुमकिन नहीं हो पाएगा। ‘‘

        

‘‘ मेरा भतीजा स्टेट लेवल के एग्जाम में सक्सेस हुआ है। उसने कभी मैत्री का पाठ नही पढा। बल्कि यह कहना प्रोपर होगा कि उसने मित्रता शब्द तो सुना होगा लेकिन मैत्री शब्द तो उसकी डिक्शनरी में ही नहीं होगा। फिर बताओ वह सक्सेस कैसे हुआ?‘‘ उनका लहजा आक्रामक होता चला गया। उनको लगा कि अब मै निरुत्तर हो जाउगॉ।

        

‘‘सर। मेरा कहने का मतलब यह नही हैं कि बिना मैत्रीभाव को साधे कम्पिटिशन में सक्सेस नही हुआ जा सकता। मै तो यह निवेदन करना चाहता हूॅ कि मैत्रीभाव से चित्त शांत होता है। सकारात्मक सोच के बीज अंकुरित होते हैं। प्रतियोगिता और शत्रुता बहिकेंदित होती है और प्रेम और मैत्री का बाहरी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं हैं। प्रेम और मैत्री अंतःकेंदित होते हैं। शत्रुता, दूसरो से संबंधित होती है। प्रेम स्वयं से ताल्लुक रखता हैं। प्रेम के झरने भीतर से प्रवाहित होते हैं। घृणा तो बाहर की प्रतिक्रिया से आरंभ होती हैं।‘‘ मैने सोचा कि शायद मैं अपनी बात केा पूर्णतया स्पष्ट करने में समर्थ रहा हूॅ।

        

हुआ भी यही। उनके चेहरे पर विशेष प्रकार की लकीरे सिकुडने और फैलने लगी। वे गहरी सोच में पड गए। बहुत ही नपे-तुले शब्द उनके मुॅह से निकले- ‘‘ यह थोटस तो नए हैं। मैने कभी इस ढंग से सोचा नही।‘‘ उन्हाने हथियार डाल दिए। स्वयं को असहज महसूस करने लगे। उनके चेहरे पर कई भाव आए और गए। उन्होने गिलास उठाया। दो घूॅट पानी पीकर, खुश्क गले को तर किया और पूछ ही लिया-

       ‘‘ ये नए थोटस तुम्हारे दिमाग में आए कहॉ से ?‘‘

         

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वे हताश हुए। कुछ सोचकर ,कहने लगे-‘‘ ये थोटस तुम्हारे माइंड की इजाद तो नहीं हैं। सही-सही बताओ, किस थिंकर के थोटस है ?‘‘

          

मैं फिर मौन रहा। अब मुझे भी आनंद आने लगा। वे यह तो मान चुके थे कि जो मैं कह रहा हूॅ। वह सत्य हैं। चूॅकि मेरी आयु उनसे आधी भी नहीं थी। इसलिए उनका अंहकार उन्हे यह स्वीकार नहीं करने दे था कि मेरे से आधी आयु का युवक सत्य कह रहा है। उनके अंहकार पर इस बात की भी चोट पड रही थी कि उनके दिमाग मे एसे ख्यालात क्यों नहीं आए।

          

‘‘ मुझे थिंकर का नाम जानना है। प्लीज मुझे बताए।‘‘ अब उनका लहजा, निवेदनात्मक हो गया था। वे थिंकर का नाम जानने के लिए बेताब हो रहे थे। शायद उनके सब्र का बॅाध टूट रहा था।

        

मैनें कोई जवाब नहीं दिया। मै फिर मौन रहा। अब उनकी जिज्ञासा परवान चढने लगी। थिंकर का नाम जानने के लिए बैचेन होने लगे। मेरा मित्र पास की कुर्सी पर बैठा हुआ था। उसने मेरा हाथ दबाकर संकेत दिया कि थिंकर का नाम बताओ, वरना ताउजी नाराज हो जाएगे। लेकिन मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। मित्र ने मेरी कमर में फिर हुददा मारा। फिर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वे अब ज्यादा ही परेशान हो गए। उन्होने एक-एक शब्द चबाते हुए मेरी तरफ देखकर आदेश पारित किया -‘‘ थिंकर का नाम बताओ।‘‘

          

मैं फिर मौन रहा। उनके चेहरे पर गर्दिश कर रहे भावो को देखता रहा। उनकी जिज्ञासा सातवे आसमान पर थी। पहलू बदलने लगें। हमारे बीच तनावपूर्ण सन्नाटा छा गया। वे थिंकर का नाम जानने के लिए बेताब होते जा रहे थे। मैं मूर्तिवत बैठा रहा । इन्ही मुद्राओ में दस मिनट गुजर गए।

          

आखिरकार प्राध्यापक महोदय नें सन्नाटे को तोडा। बोले-‘‘ मुझे थिंकर का नाम बताओ। मै, पूरी थ्योरी पढना चाहॅगा। कौनसी किताब में यह थ्योरी पब्लिश हुई है। मै उस किताब को पढुगॅा।‘‘

            

अब मुझे यकीन हो गया था कि महाशय बिना थिंकर का नाम जाने मुझे छोडने वाले नही हैं। मजबूर होकर मुझे कहना ही पडा-‘‘ सर। यह थोटस आचार्य रजनीश के है।‘‘ आचार्य रजनीश का नाम सुनने सं प्राध्यापक महोदय को ऐसा लगा जैसे, किसी ने उनके कानो में, मैनें पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो। वे गुस्से की ज्यादती की वजह से अपनी मुठिठयों को जोर लगाकर भींचने लगे। उनकी मुख मुद्रा ऐसी हो गई, जैसे मैनें उनके मुॅह में जबरदस्ती कुनेन डाल दी हो। अपनी सम्पूर्ण शक्ति को एकजाइ करके चिल्लाए-

            ‘‘ दिया-बत्ती के वक्त किस नास्तिक का नाम ले लिया। रजनीश ने लोगो को नास्तिक बनाने का आंदोलन शुरु कर रखा है। लेकिन इस आंदोलन को हम कामयाब नहीं होने देंगे। वह लोगो का धर्म से यकीन उठा रहा हैं। हम तो उसका नाम तक जुबान पर नहीं लाते है। तुम उसके थोटस स्टूडेंटस के जेहन में डालकर धर्म को नुकसान पहुॅचा रहे हो। हम, इसे बर्दाश्त नहीं करेगें।‘‘ वे मेरे मित्र और अपने भतीजे को सख्त लहजे में चेतावनी देते हुए गरजे- ‘‘ आज के बाद, इसके साथ रहा तो मुझसे बुरा कोई न होगा। तुम इस जाल को समझ नहीं रहे हो। यह तुम्हारा ब्रेन वाश कर रहा है।‘‘

          

वे हॉफने लगे। मैने हिम्मत करके पूछा-‘‘सर, क्या आपने कभी आचार्य जी पुस्तक पढी है?

            

‘‘मै क्यो पढुॅ, उस नास्तिक की बुक को। मैने लोगो से सुना है कि वह एक आला दरजे का नास्तिक आदमी है। विदेशियो और धनवानो को अपने सम्मोहन के जाल में फॅसाकर उनका ब्रेन वाश कर रहा है तभी तो सरकार नें उसे अमेरिका भेज दिया। वह भारतीय समाज के लिए खतरा हैं। गुस्से की ज्यादती के कारण उनका संपूर्ण शरीर कॉपने लगा। मैने हिम्मत जुटाकर कहा-

           

‘‘ सर, आपने उन्हे पढा नही। आपने उन्हे सुना नहीं। मेरे ख्याल से बिना पढे, बिना सुने, किसी व्यक्ति के लिए ऐसी धारणा बनाना, आप जैसे शिक्षाविद के लिए उचित नहीं हैं। ‘‘ मेरी इन तीन पंक्तियों ने आग में घी डालने का काम किया। वे बुरी तरह भडक गये। आपे से बाहर हो गए। जैसे मैने उन्हे कोई गाली दे दी गइ हो।

            

‘‘ तुम मुझे सिखाओगे कि शिक्षाविद को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। जितनी तुम्हारी उम्र नहीं हुई उससे ज्यादा तो मेरी सर्विस हो गई। उसके पास सम्मोहन के अलावा कुछ नहीं है। मैने तो यहॉ तक सुना हैं कि उसके प्रवचनो की कैसिट में भी सम्मोहन के वायरस हैं। जो एक बार उसकी कैसिट को सुन लेता है, उसी का मुरीद होकर रह जाता हैं। मुझे मेरे धर्म से भटका देगा। बहुत खतरनाक आदमी मालूम होता हैं।‘‘

            

‘‘ सर, आप कोई पुस्तक पढ लेते तो आपको हकीकत का पता चल जाता। जिन लोगो ने आचार्यजी के बारे में दुष्प्रचार किया है। उन लोगो ने भी बिना उनकी कोई पुस्तक पढे, गलत धारणाए बना ली हैं। मेरा विनम्र अनुरोध है कि आप उनकी कोई एक पुस्तक पढ लें। फिर आपको कुछ गलत लगे तो दूसरी मत पढना। पुस्तक मैं उपलब्ध करवा दूॅगा। आप कहे तो मै प्रवचनो की कैसिट भी---।‘‘

           

मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ, उससे पहले ही वे फुर्ती से कुर्सी से उठे और बडबडाते हुए घर के भीतर चले गए। मेरा मित्र शर्मिदा हो गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने उस पर घडो पानी उलीच दिया हों। वह ताउजी की चेतावनी से भयभीत हो गया था। मैने उसे कुछ कहना उचित नहीं समझा। मैं भी एक शिक्षाविद का मानसिक स्तर देखकर घर लौट आया।

           

उस दिन के बाद वे सज्जन मुझसे दूर रहने लगे। रास्ते में कहीं नजर आ जाते और मैं अभिवादन भी करता तो वे जवाब देने के बजाय तेजी से निकल जाते। मित्र ने भी दूरिया बना ली। उसने अपने ताउजी के वकतव्यो से अन्य सहपाठियो को अवगत कराया तो वे भी अपने परिजनो के प्रकोप से मेरे नजदीक नहीं आ रहे थे। हॉलाकि वे मुझसे प्रेम रखते थे फिर भी परिजनो के प्रकोप के शिकार होने का भय उनके जहन मे बैठ गया था।

   

1984-85 में ओशो को लेकर ऐसा दुष्प्रचार चल रहा था। कोई पुस्तक पढने को तैयार नहीं था। एक ने दूसरे को कहा, दूसरे ने तीसरे को और यह श्रृखला आगे बढती जा रही थी। मुझे अच्छे खासे पढे लिखे लोगो की जड बुद्वि पर तरस आता था कि बिना पढे कैसे किसी व्यक्ति के खिलाफ धारणा बनाई जा सकती हैं। ओशो को बदनाम करने में समाचार पत्र भी पीछे नहीं रहें। उनमें भी ऐसे आलेख प्रकाशित होते रहे जिससे दुष्प्रचार को हवा मिलती रही। कई आलेख तो ऐसे लेखको के होते थे जिन्होने न तो कभी पुस्तक पढी और न ही कोई प्रवचन सुना। कल्पना कीजिए कि ऐसे विषाक्त माहोले में हम ओशो के रंग में रंगने लगे थे। यह रंग किसी को रास नहीं आ रहा था। संयोग कहिए कि मै कॉलेज की परीक्षाओं में अच्छी प्रफोरमेंस देता तो अकारण पनपी विरोधियों की टीम ईर्ष्या के बोझ तले दबने लगी। उनके लिए यह कौतुहल का विषय हो गया था कि मैं पाठयक्रम के बाहर का साहित्य पढता हूॅ फिर भी परिक्षाओं में अच्छे नंबरो से कैसे उतीर्ण हो जाता हूॅ। अब वरिष्ठ नागरिक होने के बाद मुझे मालूम हुआ कि ओशो की करुणा से ही यह संभव हो पाया। ओशो के इस सूत्र को आत्मसात करने से कि जो भी करो, होशपूर्वक करो, प्रगति की राह आसान होती गई। रास्ते स्वयं आगे का मार्ग दिखाने लगे। अस्तित्व सहयोग करने लगा। चित्त, शांत अवस्था की ओर कदम बढा रहा था। न किसी से प्रतियोगिता की होड रही। धीरे-धीरे, मैत्री ने पॉव पसारना शुरु किया तो दुर्भावना का विष तिरोहित होने लगा। प्रत्येक व्यक्ति में उस परम प्यारे की झलक नजर आने लगी। पेड पौधे भी प्रेममय नजर आने लगे। चांद तारो के सौंदर्य का रसपान का स्वपन, मैत्री भाव से स्वतः ही साकार होने लगा। जो प्रभात नीरस लगता था, वही प्रभात अब उत्सव का पर्याय लगने लगा। ओशो की करुणा से जीवन में रुपानंतरण का सूर्योदय होने लगा।

           

खैर। लोगो के कटाक्ष और जीवन रुपानंतरण की प्रक्रिया समानांतर चलती रही। हम बात कर रहे थें, भाव-शुद्वि की। अशुद्व, भाव वे होते है जो भीतर से उत्पन्न न होकर बाहर की किसी घटना की प्रतिक्रिया होती हैं। ओशो ने चित्त की अवस्था को शुद्व भाव की संज्ञा दी हैं। चित्त की अवस्था से निकले भाव चित्त को शांति और सुकून देते हैं। इनसे अंतस के विकास का झरना खुलता हैं। शुद्व और अशुद भावो के पहचान की कसौटी यह हैं कि यदि कोई भाव हमारे भीतर से आता है तो वह शुद्व भाव होगा। यदि कोई भाव अन्य व्यक्ति की क्रिया या घटना से जन्म लेते हैं तो भाव अशुद्व होगा। अधिक मात्रा में इन भावो का आगमन हमारे भीतर बैचेनी, क्रोध और वैमनस्यता को पैदा कर सकते हैं। कोई व्यक्ति सवेरे की सैर में हमे विन्रमता से अभिवादन करे तो मन में प्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है। यह भाव शुद्व नहीं है। यह उस व्यक्ति के विनम्रतापूर्ण अभिवादन की प्रतिक्रिया है। इसके विपरीत कोई व्यक्ति हमारे से मिलते समय कटु वचनो का प्रयोग करता है तो क्रोध के भाव उत्पन्न होते हैं। यह क्रोध के भाव कटु वचनो के श्रृवण से अस्तित्व में आए हैं। जो प्रतिक्रिया होने से अशुद्व भाव की श्रेणी में आएगें।

           

भावो के शुद्विकरण की श्रृखला में मैत्री की भूमिका सर्वाधिक मानी गई है। जीवन में मैत्री का आगमन स्वतः संभव नहीं है। मैत्री को निमत्रंण देना होगा। मैत्री केा जीवन का अंग बनाने के लिए साधना करनी होगी। हम जिस समाजिक जीवन के अंग है। वहॉ मैत्री का विकास स्वतः संभव नहीं है। ओशो कहते है कि सबके के भीतर मैत्री का केंद्र मौजूद हैं लेकिन जीवन की जटिल प्रक्रिया के कारण, यह केंद्र जीवन भर अविकसित रह जाता है। मैत्री और प्रेम को विकसित होने के लिए अभयपूर्ण भूमि की आवश्यकता होती है। जब तक भूमि में अभय के तत्व नही होगें, मैत्री और प्रेम का वृक्ष कभी भी पुष्पित और पल्लवित नही होगा। मैत्री की साधना के लिए प्रथम सोपान लोगो की निस्वार्थ सेवा हो सकती है। इस सोपान का विस्तार मानव मात्र तक सीमित नहीं होकर पशु-पक्षियो, और संपूर्ण कायनात के प्रति हैं। यदि किसी भी धर्म को मानने वाले व्यक्ति अंधेरे में कीट पंतंगो के प्रति स्वाभाविक रुप से हिंसा न करने के प्रयोजन से भोजन करने का निषेध करते है तो यह अंहिसा है। इस भावना का उदभव करुणा से हुआ हैं। एक दूसरा पहलू भी हैं। जहॉ किसी धर्म विशेष के अनुयायी अपने पुरखो के अनुसरण में अंधेरे में भोजन नहीं करते हैं, वहॉ ओशो ने इसे आदत की संज्ञा देते हुए, इस कृत्य को अंहिसा की श्रेणी में शुमार नहीं किया हैं।

          

समाज में लोगो को नाराज न करने के प्रयोजन से विनम्र शब्दावली का प्रयोग किया जाना शिष्टाचार का तकाजा हैं। एसी विनम्रता सामाजिक व्यवस्था का अंग हो सकती है। इसे मैत्री नही माना जाना चाहिए। मैत्री तो साधना से ही आएगी। इस साधना का शुभारंभ प्रकुति के प्रति प्रेम भेजकर किया जा सकता हैं। ओशो का कहना हैं कि हमारे भीतर इतनी कटुता हैं कि हमें पृथ्वी के संपूर्ण मानव जगत के प्रति प्रेम संदेश भेजने में अडचन हो सकती है इसलिए नदी और पहाडो को प्रेम और मैत्री का संदेश भेजना सरल एवंम सुकर होगा। सूर्योदय के दर्शन, नदी को माता के समकक्ष मानना, चॉद को मामा के रिश्ते से संबोधित करना, प्रकुति के प्रति प्रेममय होने के ही प्रयोग थे। ओशो तो यहॉ तक कहते हैं कि यदि कोई चंद्रमा की चांदनी में कुछ क्षण मौन होकर बैठ जाए, तो शरीर में प्रेम-मैत्री का केंद्र विकसित हेाने में सहयोग मिल सकता हैं।। चंद्रमा की चांदनी के प्रति अहोभाव प्रकट करने से प्रेम-मैत्री के केद्र को विकसित होने में मदद मिल सकती है। महाबलेश्वर के शिविर में ओशो ने रहस्य उजागर किया कि हमारे चारो ओर अवसर ही अवसर उपलब्ध है। यह प्रकृति, अदभूत रहस्यो से लबालब हैं। प्रेम के अवसर को खाली नहीं जाने दे। जब भी प्रेम का अवसर उपलब्ध हो, उसका उपयोग कर ले। जैसे आप रास्ते से जा रहे हैं। रास्ते में कोई पत्थर नजर आया। उस पत्थर को वहॉ से हटाकर ऐसे स्थान पर रख दे जहॉ किसी राहगीर को चोट लगने की संभाावना न रहें। यह अति सरल साधना हैं। किसी राहगीर को पत्थर से होने वाले नुकसान से बचाकर हमने प्रेम का कृत्य संपंन कर दिया। रोजमर्रा के कृत्यो में लोगो से हाथ मिलाना एक सामान्य सी आदत हैं। इस आदत से भी मैत्री और प्रेम को साधा जा सकता हैं। स्वयं को प्रेम से लबरेज कर किसी के प्रति प्रेमपूर्ण होकर हाथ मिलाया जाए तो समझ लीजिए कि आप प्रेम के केंद्र को विकसित करने की दिशा में अग्रसर हो रहे है। ऐसा बार-बार करने से इस केंद्र को विकसित किया जा सकता हैं। इतना ही ख्याल जहन में रखना हैं कि इन कृत्यो के परिणाम की हमारे भीतर कोई आंकाक्षा नहीं रहे। यह कृत्य तो हम भाव-शुद्वि के प्रथम चरण के लिए कर रहे है। जब यह भावना विकसित हो जाएगी कि हमारे कृत्य सामने वाले की प्रतिक्रिया से कोई संबंध नही रखते है तब इस केंद्र का विकास होगा। हमारे सभी कृत्य मात्र आनंद प्राप्ति के लिए हो जाए तो स्वर्ग पृथ्वी पर स्थापित होने में अधिक समय नहीं लगेगा। ओशो ने तो यहॉ तक दावा किया है कि ऐसी निरतंर साधना से आप उनके प्रति भी मैत्रीपूर्ण हो जाएगें, जिनके मन में आपके प्रति शत्रुता के बीज पडे हुए हैं। ऐसी स्थिति भी आ सकती हैं कि हम उदघोषित कर सके कि मेरी किसी से कोई शत्रुता नहीं है। सभी से मेरी मैत्री हैं। इसके बाद जीवन के आनंद को देखिए। झरने फूट पडेगें, आनंद, प्रेम और मैत्री के। मौसम की बारिश भी अहसास देगी कि प्रकृति अमृत बरसा रही हैं। सुबह की ओस सुखद अहसास देगी।




 
 
 

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