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अेाशो हमारे विवेक को जागृत करते है। (भाग : 1, ब्लॉग : 3)

  • ayubkhantonk
  • May 2
  • 4 min read

Updated: May 9

दिनांक : 02.05.2025

पिछले ब्लॅाग में हमने अधूरी कहानी को पूरा किया था। जिसमें हमने अेाशो की काल्पनिक अैार सृजनात्मक शक्ति को रेखांकित करने का प्रयास किया था। अब आगे पढिए---


   

देखिए ओशो की कल्पनाशीलता। सदियो से चल रही, परंपरागत कहानी का अंत कैसे रुपांतरित कर दिया। उस दिन मेरे जहन में आया कि हमारी बुद्वि एकतरफा चलती है। दूसरे पक्ष तक जाने की बुद्वि सोच ही नहीं सकती। जैसे वृद्व टोपीवाले ने अपने पुत्र को बंदरो से टोपिया वापस प्राप्त करने की तरकीब बताई थी, वैसे ही बंदरो के सरदार ने भी सभा करके उन्हें गुरु ज्ञान दे दिया था। कहानी के इस अंत से, मुझे भी नए ढंग से कहानियो, कविताओ और किस्सो पर सोचने के लिए एक प्लेटफार्म उपलब्ध करवाया। मेरे सोचने समझने के तरीके में परिवर्तन आता गया। यह ओशो की महान देन है। वरना तो धर्म प्रचारक खुद की कही हुई बात को ब्रहम वाक्य बताते हुए उस पर बिना किन्तु परन्तु के मानने पर बल देते है। संभवतया ओशो एक मात्र प्रवक्ता है जिन्होने प्रत्येक प्रवचन में संदेह करते हुए अपने विवेक का प्रयोग करते हुए मानने के बजाय जानने पर बल दिया। अेाशेा के सन सतर से पहले के प्रवचनो का अंत इस तरह होता था-

‘‘ मेरी बातो को इसलिए मत मान लेना की मैने कहा है। यह मेरे अपने अनुभव है। आप इन बातो पर गौर करना। यदि इनमें सत्य होगा तो थोडे से प्रयास से जान जाओगें। मेरी बातो को इतने ध्यान से सुना, इसके लिए अनुगृहित हूॅ। अंत में आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूॅ। मेरे प्रणाम स्वीकार हो।‘‘

    

कैसे अनूठे रहस्यदर्शी है। लोगो के विवेक को जागृत करना चाह रहे हैं। इतिहास गवाह हैं कि किसी भी दार्शनिक और रहस्यदर्शी ने कभी नहीं कहा कि मेरी बातो को इसलिए मत मान लेना की, मैनें कहा हैं। वे तो हमें यह कह रहे हैं कि मेरे कहे हुए पर चिंतन मनन करना और सत्य की कसौटी पर परखना। यदि मेरा कहा हुआ सत्य होगा तो न मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। दूसरे संतो और रहस्यदर्शियों के साथ ऐसा नही है। वे या तो अपने प्रवचनो को परमात्मा की वाणी से जोडते हैं या फिर शास्त्रो सूत्रो से । वे कहते है कि जो मै कह रहा हूॅ, वह लोहे की लकीर हैं। यदि इस लकीर के दॉए-बाए गए तो नरक भेज दिए जाओगें। कई लोग अपने प्रवचनो में यह भी कह देते हैं कि मेरे वकत्व शास्त्र समर्थित हैं। इन पर संदेह करोगे तो जीवन भर दुखी रहोगें। यदि सुबह ब्रहम मूर्त अर्थात फजर में नहीं उठोगे तो पाप लगेगा। ओशो कहते है कि ब्रहम मुहरथ अर्थात फजर में उठना अच्छा है लेकिन तब, जबकि हमारे अतंर्मन से ऐसा हों । पाप के डर से ब्रहम मुहरत में जागने से पुण्य नही होगा। जबरदस्ती अलार्म लगाकर उठने से पुण्य का कोई संबंध नही हैं। जब नींद पूरी भर जाए और अंतर्मन कहे कि जागो, पक्षी गीत गाने वाले है। योग प्राणायाम और नमाज की तैयारी करो तो सुखानुभूति को अनुभव करोगें। किसी पाप के डर से नहीं। किसी पुण्य की अभिलाषा से नहीं। सिर्फ रात्रि की पूर्णता और सवेरे के आगमन का स्वागत करने के प्रयोजन से। दुनिया में ऐसे कई लोग है जो रात को सोते तो है लेकिन जाग नहीं पाते। उनकी रात्रि में नींद के दरमियान ही जीवन लीला समाप्त हो जाती हैं। जब भी स्वतः ऑख खुले तो अपने ईष्ट को धन्यवाद देना कि उसने एक शानदार सुबह देखने का एक और अवसर दिया। इस प्रकार ओशो अनुशासन के प्रति कठोर नही हैं। वे आत्मानुशासन के अविष्कारक है। ऐसा अनुशासन, जो आत्मा से जन्म लेता है। ऐसा अनुशासन, जो स्वाभाविक और आत्मस्फुरित हैं। प्रयास रहित। बिना भय के। कुछ लोग रेड लाईट में जुर्माने के भय से प्रविष्ट नहीं होते हैं। चौराह पर पुलिसकर्मी न हो तो वे बेधडक रेड लाईट को पार कर लेते है। ओशो का जीवन भर प्रयास रहा कि ध्यान से लोगो की चेतना को विकसित की जाए ताकि चोराहे पर पुलिसकर्मी तैनात हो या नहीं, उनके दिमाग में स्वतः ही यह रहे कि चाहे कोई देख रहा हो या नहीं? उसे रेड लाईट पार नही करनी है। कई लोग, चोरी पकडे जाने पर दंड के भय से चोरी नहीं करते हैं। यदि पकडे जाने का भय नही हो तो चोरी कर सकते हैं। एक दूसरी स्थिति ओर भी होती है कि चोरी करने का ख्याल ही दिमाग में नहीं आता। पकडे जाने की दूर-दूर तक कोई आशंका नहीं है। आराम से पराए माल पर हाथ साफ किया जा सकता हैं। फिर भी मस्तिष्क में हाथ साफ करने का विचार ही जन्म नहीं लेता। ओशो इस विचारधारा को "अचोरी" की संज्ञा देते हैं। यह अचोरी का भाव, भीतर से आता है। अंतर्मन से आता हैं। इस भाव की उत्पति के लिए यह समझना जरुरी हैं कि गलत और अवैध कार्य के परिणाम अप्रोक्ष रुप से भी घटित हो सकते है। आग में अभी हाथ देगे तो हाथ अभी जलेगा। हाथ का जलना तुरंत आरंभ हो जाता हैं। यह प्रत्यक्ष परिणाम हैं। ओशो का मानना था कि कार्य का परिणाम तुरंत आता है। मन में उठे वैमनस्यपूर्ण भाव से बैचेनी तुरंत प्रारंभ हो जाती हैं। मस्तिष्क में विचारो का झंझावात हिलोरे लेने लगता हैं। अभी कुछ किया नहीं है। सिर्फ दिमाग में ख्याल आया हैं। इस ख्याल से ही परेशानी का उदभव हो जाता है। यह ख्याल ही अंशांति को जन्म देने के लिए काफी हैं। ऐसे ख्यालो को बलपूर्वक रोकने का प्रयास सफल नहीं होता है। यदि बलपूर्वक किसी तरह रोक भी लिया गया तो अवचेतन में फीड हो जाएगा। इसकी जडे नष्ट नहीं होगी। थोडा सा खाद पानी मिला और बीज अंकुरित हुए। ऐसे ख्यालो की जडे चेतना के विकास से ही नष्ट की जा सकती हैे।

    

 
 
 

1 Comment


neelam sain
neelam sain
May 13

🙏

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नमस्ते, मैं अय्यूब आनंद
आपका स्वागत करना मेरे लिए प्रसन्नता की बात है।

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